Home बौद्धिक दास्य में भारत बौद्धिक दास्य में भारत – आमुख

बौद्धिक दास्य में भारत – आमुख

by Dr. Rajaram Hegde
83 views

हमें सदैव हमारे विचारों, विश्वासों आदि का परिमार्जन करते रहने की आवश्यकता है। यदि वह परिमार्जन की प्रक्रिया सदैव हो तो हममें गलत निर्णय लेने की सम्भावना रहती है। हमारी इस छोटीसी भूल से अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। यह हमारे अनुभव की बात है कि ज्ञानार्जन की प्रक्रिया सदा बनी रहती है। हमारी संस्कृति से सम्बन्धित जो जानकारी है उन जानकारियों का भी समयसमय पर परिष्कार होने की आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति के बारे में हमारा ग्रहित जो है उसका पुनर्परिशीलन होना चाहिए। इसका कारण यह है कि हम जिसे सत्य मानकर आये हैं वह सौ साल पुरानी बात है। उपनिवेश कालखंड के ब्रिटिश समाज विज्ञानियों ने उसका प्रतिपादन किया था। आज, काल एवं उसके प्रति हमारा ज्ञान बदल चुका है। 

विज्ञानी लोग सदैव संसार के प्रति अपने हासिल ग्रहित का समयसमय पर परिष्कार करते रहते हैं। जिस प्रकार एक सौ साल पहले का भूमंडल सम्बन्धी ज्ञान आज बदल गया है। उन पुरानी मान्यताओं को जैसे के तैसे अपनाना विज्ञानियों के लिए नामुमकिन है। ठीक उसी तरह समाज से सम्बन्धित चिन्तनों का परिष्करण किये बिना उसे आज भी अन्तिम सत्य की तरह प्रतिपादित करते रहना ठीक नहीं है। भारतीय समाज विज्ञानियों को इसके बारे में नये सिरे से सोचने की जरूरत है। पिछले एक सौ साल में समाजविज्ञान ने अनेक नयी चर्चाओं को जारी किया है तथा हमारे समाज से सम्बन्धित मान्यताओं का परिष्कार किया है। परन्तु भारतीय संस्कृति से सम्बन्धित मान्यताएँ जो हैं वे जैसी के तैसी हैं। 

एक सौ साल पहले की हमारी संस्कृति से सम्बन्धित जो मान्यताएँ थीं उसकी नींव पर हमारी राजनीतिक नीतियाँ रूपायित हुई हैं। उससे अनगिनत समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। उन समस्याओं का समाधान करने के लिए हम ऐसा मार्ग अपना रहे हैं, जैसे एक बीमार व्यक्ति का उपचार करने के पहले उस व्यक्ति की दैहिक स्थिति एवं वह व्यक्ति किस रोग से पीड़ित है आदि सही जानकारी के बिना चिकित्सा करें तो उस व्यक्ति का रोग निदान होने के बदले रोग और बढ़ जाता है। इतना ही नहीं नयीनयी शारीरिक समस्याएँ शरू होती हैं। ठीक उसी प्रकार हमारी संस्कृति एवं उससे सम्बन्धित समस्याओं की सही जानकारी के बिना हमारी सामाजिक नीतियों को रूपायित करें तो नयीनयी समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इसीलिए हमारी संस्कृति का स्वरूप एवं उसकी समस्याओं का सही ज्ञान रखना हमारी संस्कृति पर श्रद्धा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति का परम कर्त्तव्य होगा। स्वीकृत विचारों पर प्रश्न उठाना अथवा उसे नकारना बौद्धिक चर्चा तक सीमित है। जब इन विचारों पर राजनीतिक नैतिकता का रंग चढ़े तो उन विषयों पर सवाल उठाना और भी कष्टदायक होगा। वह काम एक प्रकार से प्रवाह के विरुद्ध तैरने का साहस होगा। भारतीय सन्दर्भ में तो ऐसे विचारों के बारे में कोई प्रश्नचिह्न लगाता है तो उसके ज्ञान की सच्चाई ईमानदारी के बारे में सोचे बिना उसका मुँह बन्द करने में लोग तुले रहते हैं।

ऐसी स्थिति में प्रस्तुत ग्रन्थ को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करने के पहले इस प्रकार की लम्बी पीठिका की आवश्यकता है। ये लेख प्रो. बालगंगाधरजी के अनुसन्धान का फल है। उनके अनुसन्धान भारतीय संस्कृति एवं समाज में पाये जाने वाली समस्याओं को पहचानने में गुरुतर का कार्य कर रहे हैं। ब्रिटिश समाज विज्ञानियों के गलत ग्रहित के फलस्वरूप हम हमारे दैनंदिन जिन्दगी में जाने कितनी व्यावहारिक समस्याओं को झेल रहे हैं; ये कहा नहीं जा सकता। बालगंगाधरजी उन समस्याओं के समाधान के बारे में भी दिशा निर्देश करते हैं। यह कुछ सन्तोषजनक बात है। बालगंगाधर बालू ये नहीं प्रतिपादन करते हैं कि भारतीय संस्कृति में समस्याएँ कदाचित नहीं हैं। परन्तु उनका कहना यह है कि आज हम उन समस्याओं के समाधान के लिए जो मार्ग अपना रहे हैं वह गलत मार्ग है। उससे समस्याओं का समाधान मिलने के बजाय और बढ़ जाता है। इतना ही नहीं और नयीनयी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।इन सामाजिक समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने के लिए ही प्रस्तुत अनुसन्धान जारी है। आये दिन भारतीय संस्कृति में विद्यमान समस्याओं के समाधान करने के लिए समाज विज्ञानी लोग उठकबैठक करते रहे हैं। ऐसे सन्दर्भ में बालूजी के अनुसन्धान कुछ आशाजनक हैं। 

इन लेखों की रचनाप्रक्रिया कुछ इस प्रकार से है कि वे सरसरी नजर से देखे जायें तो लघु लेख की तरह दिखते हैं अथवा कुछ लोकप्रिय वक्तव्य की तरह दिखेंगे। परन्तु वे विचार एक व्यक्ति के कई दशकों के अनुसन्धान का फल एवं भारतीय संस्कृति के प्रति उनका नया सिद्धान्त है। ये एक समाजविज्ञानी के आज तक के अनुसन्धान की फलश्रुति को फिर से कसौटी पर कसकर निकला हुआ सार है। बालू का आशय यह है कि भारतीय संस्कृति के बारे में हमारी जानकारी जो भी है वह और भी परिष्कृत हो।

इन लेखों को इतने लघु लेखों की तरह रखने का भी एक उद्देश्य है। एक अन्य भाषा की कृति को किसी भाषा में अनुवाद करते समय अनेक समस्याएँ आती हैं। उसका सन्दर्भ अलग हो जाता है। जब मैंने बालूजी काहीदन इन हिस ब्लैंडनेसग्रन्थ का अनुवाद कन्नड़ में किया, तब मेरे सामने अनेक समस्याएँ आयीं। उसी प्रकार चिन्तन प्रणाली जो है, वह व्यक्त होते समय और अनुभव में आते समय भिन्न हो जाती है।

बालूजी के विचारों को कन्नड़ में अनुवाद करते समय जिस प्रकार मेरे समझ में आया उसी प्रकार उसका निरूपण किया। बालूजी के विचारों को पढ़ते जायें तो लगता है कि वे हमारी मान्यताओं को तथा विचारों को पूरा उल्टासीधा कर रहे हैं। परन्तु पिछले सौ साल के समाजविज्ञान को जानने वालों को ऐसा नहीं लगेगा। उसके बदले आजकल समाजविज्ञान में जो चर्चा हो रही है, उसमें जो मौलिक समस्याएँ उठ रही हैं, उनके समाधान के रूप में बालूजी के विचार हैं। एक सम्बल मिलता है तथा एक उत्तर मिलता है, क्योंकि हमारे आज के सामाजिक चिन्तन में जो समस्याएँ हैं उन्हें बुद्धिजीवियों ने पहचान लिया है। परन्तु उन समस्याओं का निश्चित स्वरूप क्या है? उससे बाहर आने का मार्ग क्या है? आदि पर शोध करने के साहस को बालूजी ने किया है। आप समाजविज्ञान पर जिन सवालों को उठाते हैं, उसी प्रकार जिन नये सिद्धान्त का मण्डन किया है, वह नयी पीढ़ी को अनुसन्धान करने के लिए जरूर फलप्रद मार्गदर्शन करेगा। उनके सिद्धान्त में समस्याओं की पुरानी गुत्थियों को ढीला करने की असीम शक्ति है।

 

अनुसन्धान के मार्ग पर अग्रसर होने वालों के सामने और एक कठिनाई का सामना करना पड़ेगा कि बालगंगाधर जी प्रायः किसी राजनीतिक गुट को सन्तुष्ट नहीं करेंगे। उनके कई विचार किसी एक गुट को अच्छे लगेंगे और कई विचार अच्छे नहीं लगेंगे। क्योंकि आज जो राजनीतिक सिद्धान्त प्रचलन में हैं, वह इन समाजविज्ञान के सिद्धान्तों के नींव पर खड़े हैं। उस बुनियादी नींव को ही पुनर्परिशीलन की कसौटी पर कसें तो वह नींव ही लड़खड़ाने की सम्भावना है। आज के समाजविज्ञान के निरूपण अपरिपक्व होने के कारण से ही आज की राजनीति में विरोध एवं असमाधान के कारण बन रहे हैं। यह नया सिद्धान्त ऐसी समस्याओं को पहचान कर उस पर समाधान ढूँढ़ने का नया द्वार खोलने का प्रयास करता है। परन्तु समाजविज्ञान पर आधारित नया सिद्धान्त जो है वह पुराने सिद्धान्त की नींव पर खड़ी राजनीति को कहींकहीं पूरक करेगा, परन्तु सम्पूर्ण रूप में सम्भव नहीं। बिल्कुल नये सिरे से राजनीतिक चिन्तन करने वालों को यह सिद्धान्त मार्ग प्रशस्त करने वाला दीपस्तम्भ होने में कोई सन्देह नहीं है। 

Author

  • Dr. Rajaram Hegde

    Dr. Rajaram Hegde is a retired Professor of History and Archaeology, Kuvempu University. He was an invited Lecture Fellow at Ecole Pratique des Hautes Etudes, Paris in 2004. He was also an academic collaborator with the Department of Comparative Science of Cultures, Ghent University, Belgium, and in Asia Link Program sponsored by the European Commission. He was also engaged in the Flemish Inter-University Council project on ‘Own Initiative’ in developing Centre for the Study of Local Cultures (CSLC) in Kuvempu University. As a part of this collaboration, he has translated an English book ‘The Heathen in his Blindness” as “Smriti-Vismriti: Bharatiya Samskriti” into Kannada.

You may also like