Home बौद्धिक दास्य में भारत क्या भगवान से मृतक की आत्मा को शान्ति मिलती है 

क्या भगवान से मृतक की आत्मा को शान्ति मिलती है 

by S. N. Balagangadhara
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क्रैस्तों का सोल जो है उसका भारतीय आध्यात्म में प्रचलित आत्मा शब्द से समीकरण किया गया है। हिन्दूइज्म भी एक रिलिजन समझकर ऐसा अनुवाद किया गया है। ऐसे अनुवाद से कितनी समस्याएँ उठती हैं? आप ही देखिए। 

किसी की मृत्यु के समय दुःख व संताप व्यक्त करते हैं। उसकी आत्मा को भगवान शांति दे कहना आम सी बात हो गई है। मृतक व्यक्ति को विधिवश हुए, कैलासवासी बने, वैकुंठवासी बने आदि उसके अपने मत व जाति के अनुसार कहते हैं। किसी बड़े व्यक्ति की मृत्यु हो जाय तो अखबारों में शोक व्यक्त करते हैं। मृतक व्यक्ति की हैसियत के अनुसार राज्य राष्ट्र स्तर तक शोक सूचक सभा का आयोजन किया जाता है। तब लोग क्या करते हैं? मौन आचरण करते हुए भगवान से प्रार्थना करते हैं कि मृतक की आत्मा को शांति दें। आम तौर पर सरकारी कचहरियों में एक या दो पल के लिए मौन होकर खड़े होते हैं। प्रायः यह भगवान से प्रार्थना करने का सेक्युलर रूप होगा। यह जो प्रार्थना होती है वह किससे होती क्यों होती है? मत पूछियेगा। क्योंकि वह किसी को भी मालूम नहीं है। 

भारतीय आध्यात्म परम्परा के ज्ञान से परिचित व्यक्ति को यह आचरण जरूर अटपटा लगता है। इसमें कोई शक नहीं है हमें जो बात मालूम ही नहीं, उसे बिना जाने करते रहते हैं। लोग करते हैं इसीलिए हम भी करते हैं। किसी भी भारतीय सम्प्रदाय में यह नहीं कहते हैं कि मृतक की आत्मा अशांत रहती है। सुख-दुःख, शांति-अशांति जीवन से सम्बन्धित विचार है। भगवान से विमुख जीव माया से लिप्त होकर कष्ट भोगता है। इससे मुक्त होना ही आत्मा की सही पहचान है। इसीलिए हमारे सम्प्रदाय में मृतक की आत्मा चिर शांति से सोने की कल्पना तक नहीं कर सकते हैं। पर हम क्यों ऐसा करते हैं जो हमें मालूम ही नहीं? यह विचार कहाँ से आया हुआ है? 

शिष्टाचार के वशीभूत हम ऐसा आचरण करते हैं, ऐसा बोलने का अवसर अक्सर आता रहता है। आपको लगेगा कि इतनी सी छोटी बात पर इतना सोचना बेकार है। यह विचार करने न करने तक सीमित नहीं है। ऐसा हो तो मेरी कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु बात यह है कि उपरोक्त सन्दर्भ में ‘आत्मा’ का अर्थ अंग्रेजी ‘सोल’ का पर्यायवाची शब्द है। भगवान मृतक की आत्मा को शांति दें। यह वाक्य अंग्रेजी वाक्य का अनुवाद है। ‘सोल’ को ‘आत्मा’ कहकर समझेंगे तो उपरोक्त वाक्य की सृष्टि होती है। इस भाषांतर को हम अक्सर हमारे आध्यात्मिक सन्दर्भ में उपयोग करते रहते हैं। वह भारतीय संस्कृति के प्रति जो अज्ञान है उसे और भी बढ़ाता है। वह कैसे होता है? देखेंगे। 

उपरोक्त उल्लेखित वाक्य मृत व्यक्ति को दफन करते समय बोलने का प्रार्थना परक वाक्य है। यह कैथोलिक क्रैस्तों के काल से ही प्रचलित है। कालांतर में समाधि के पत्थर के ऊपर तराशने की पद्धति क्रैस्तों में आई। ‘सोल’ का अर्थ मनुष्य का आंतरिक दुनिया अथवा यूँ कहिए कि उसका व्यक्तित्व, उसमें मन, भावनाएँ, संकल्प, धेय आदि समेटे रहते हैं। वह मनुष्य की भ्रूणावस्था में ही गॉड द्वारा सृजित की जाती है। देह और सोल के मेल से ही मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। जब व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तब ये देह और सोल अलग हो जाते हैं। जब देह को दफन किया जाता है तब देह गल जाने पर भी सोल गॉड के अन्तिम निर्णय के लिए इंतजार करती रहती है। यह ‘अन्तिम निर्णय’ सेमेटिक रिलिजन की ही विशिष्ट परिकल्पना है। समाधिस्थ सोल को गॉड उसके पाप (गॉड के आदेश का उल्लंघन करना) और पुण्य (गॉड का आदेश बिना चूके पालन करना) के हिसाब किताब करके उसे पाराडैस (स्वर्ग) जाना या नरक (हेल) जाने का निर्णय गॉड द्वारा किया जाता है।

 सोल का स्वरूप क्या है? वह समाधि में किस स्थिति में रहता है? गॉड द्वारा अन्तिम निर्णय कब होता है? कैसे होता है? आदि विषय पर क्रैस्तों में मतभेद है। परन्तु सोल द्वारा अन्तिम निर्णय के लिए इंतजार करने के बारे में सभी मानते हैं। कई लोग कहते हैं कि वह इंतजार करते समय होश में रहता है। पर कई लोगों की मान्यता है कि वह सोयी हुई स्थिति में रहता है। इसीलिए मृतक व्यक्ति के देह का दफन करते समय इस प्रकार कहकर कामना करते हैं कि वह सोल अन्तिम निर्णय तक शांति से इंतजार करते विश्राम करती रहे। 

मृतक के प्रति शोक सूचक यह आचरण उपनिवेश के कालखंड में विदेशी शासकों के साथ भारत में भी प्रचलन में आया। भारतीय लोगों ने भी इस प्रकार शोक सूचक वाक्य बोलने का रिवाज अपने सन्दर्भ के साथ अपनाया है। यह आचरण आम लोगों से अधिक बड़े-बड़े नेताओं व अफसरों की मृत्यु के समय, सरकारी सन्दर्भ में ही अधिक व्यवहृत है। ‘सोल’ शब्द का अनुवाद ‘आत्मा’ बना दिया गया। परन्तु भारत में मृत देह के दफन करने वालों से अधिक जलानेवाले पाये जाते हैं। इसीलिए मृतक की आत्मा सो जाय अथवा विश्राम कर ले कहना अप्रस्तुत हुआ। 

भारतीय संस्कृति में मृतकों की आत्मा को शांति देने के आशय का उपरोक्त वाक्य का अनुवाद अर्थहीन अटपटा वाक्य मात्र बन जाता है। क्योंकि सोल को आत्मा कहकर अनुवाद नहीं कर सकते हैं। क्योंकि भारतीय कई आध्यात्मिक सम्प्रदाय के मुताबिक आत्मा मन, बुद्धि अहंकार से परे है। आत्मा सभी मनोव्यापार के लिए प्रमाण है। हमारे यहाँ जीवात्मा और परमात्मा की परिकल्पना है। उसे इंडिविजुवल सोल और युनिवर्सल सोल कहकर अनुवाद किया गया है। इससे भी अजीब अर्थ निकलता है। सोल को विश्वव्यापी कहने के बदले सार्वत्रिक कहने से कैसा प्रमाद होता है? आदि चिन्तनीय है। वह व्यक्ति की वैयत्तिक विशिष्टता से सम्बन्धित है। 

समस्या इसीलिए आती है कि सोल की परिकल्पना जो है वह रिलिजन का उसका अपना विशिष्ट तत्त्व है। उसे हमारी आत्मा के समान नहीं कह सकते हैं। इस शब्द के अनुवादकों ने केवल मोटे तौर पर अनुवाद करके छोड़ दिया है। उन्हें हमारी आध्यात्मिक परम्परा में आत्मा शब्द की जो अर्थव्याप्ति है उसका अंदाजा तक नहीं है। परन्तु खेद की बात यह है कि आज भी हमारे चिन्तकों सन्यासी लोग हमारे अध्यात्म चिन्तन को अंग्रेजी में अनुवाद उपरोक्त रीति से ही करके समस्या का विश्लेषण करते रहते है। हिन्दू संस्कृति के प्रतिनिधि के रूप में बड़े-बड़े भाषण देते रहते है। 

यदि हमें जानकारी हो कि ‘सोल’ रिलिजन की ही विशिष्ट परिकल्पना है। तो मालूम हो जाता था कि वह केवल क्रिश्चियन के लिए सीमित है। परन्तु वह परिभाषा सीधे रिलिजन के थियालोजी से नहीं आयी है। बल्कि वह रिलिजन से सम्बन्धित सेक्युलर सिद्धान्तों द्वारा आयी है। गलतफहमी हुई है कि यह परिभाषा दुनिया की किसी भी संस्कृति के बारे में वैधानिक विवरण देने योग्य है। पाश्चात्य रिलिजन के अध्ययनों ने थियालोजी की परिभाषाओं को लोक वर्णन की अधिकृत भाषा के रूप में स्वीकारा। इसी के परिणाम स्वरूप छद्मवेष में रिलिजन के विज्ञान में बदल गई। 

थियालोजी के शब्द पाश्चात्यों के सामान्य बोली के अंग बनकर सेक्यूलर दुनिया में घुस गये हैं। इसी परिभाषा के द्वारा अन्य संस्कृतियों का वर्णन होने लगा। फलस्वरूप अन्य संस्कृति के चित्रण में भी थियालोजी ही दिखने लगी। पाश्चात्य समाजशास्त्रज्ञों को यह मालूम ही नहीं हुआ कि उनके द्वारा किये गये अन्य संस्कृति के चित्रण में उनकी अपनी थियालोजी ही दिखायी दे रही है। इसी कारण से अन्य संस्कृतियों का चित्रण भी रिलिजन की थियालोजी की परिभाषा में हुआ। इसका अजीब सा परिणाम निकला। पाश्चात्यों को भ्रम हुआ कि अपना रिलिजन सभी संस्कृति में मौजूद है। उन्हें अजनबी संस्कृति भी जानी पहचानी सी लगी। भिन्न संस्कृतियों के बीच का भेद समझ में नहीं आया। 

मनुष्यों से सम्बन्धित पाश्चात्य चिन्तनों के मूल में सोल की परिकल्पना काम करती है। उनके अनुसार एक व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण के मूल में सोल की निर्णायक भूमिका होती है। इतना ही नहीं पाश्चात्य सामाजिक चिन्तनों में समुदाय से बढ़कर व्यक्ति को उच्च स्थान मिलता है। व्यक्तिवाद (इंडिविज्युलिज्म्) भी इसी से ही जन्मा है। एक व्यक्ति के व्यक्ति वैशिष्ट्य के पीछे बड़ा कारण सोल रहता है। क्योंकि वह गॉड की सृष्टि है। इसीलिए उसके पीछे गॉड का उद्देश्य और उसकी इच्छा रहती है। इस दुनिया में किसी भी व्यक्ति को गॉड की इच्छा और उद्देश्य के अनुसार कर्तव्य निभाने में सोल एक साधन है। इसीलिए उसे अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। उसका दमन किसी भी हालत में न हो। ऐसा करना अपराध है।

सोल का सेक्यूलर रूप सेल्फ को पाश्चात्य मनोविज्ञान, राजनीति, समाजविज्ञान आदि में महत्त्वपूर्ण स्थान मिल चुका है। पाश्चात्य चिन्तनों में व्यक्तिवाद, उसका स्वातंत्र्य, उसकी मोरालिटी, आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके मूल में सोल और ‘सेल्फ’ की विशिष्ट परिकल्पना ही काम करती है। हमारी आत्मा को केंद्र में रखकर हम ऐसे चिन्तन को रूपायित नहीं कर पाते हैं। वह नामुमकिन है। 

एक पारिभाषिक शब्द का अनुवाद से ही इतना हंगामा मचता है तो हमारे आध्यात्म का ऐसे ही अनेक शब्दों से वर्णन किया गया है। जिससे मूल अर्थ ही नहीं निकलता है। ऐसे वर्णनों से पाश्चात्य लोग हमारे आध्यात्म के बारे में क्या समझ गये होंगे। भारतीय चिन्तकों ने भी समझ लिया कि हम ऐसे ही शब्दों के द्वारा पाश्चात्य लोगों को भारतीय आध्यात्म चिन्तन के महत्त्व बता सकते हैं। आज हिन्दूइज्म के नाम पर जितने ग्रन्थ भंडार हैं उनमें थियालोजी की परिभाषा के द्वारा ही उसका वर्णन किया गया है। उदाहरण के लिए धर्म (रिलिजन), वेद (सेक्रेड स्क्रिप्चर), तत्त्व (डाक्ट्रिन), देवता (गॉड), भूत (डेविल), पूजा (वर्शिप), पाप (सिन), नरक (हेल), शास्त्र (लो) मुक्ति (साल्वेशन) मूर्ति पूजा (ऐडोलेट्रि) आदि। 

इन अनुवादों से दो प्रकार की प्रक्रिया दिखाई देती है। 

1. थियालोजी की परिभाषाओं द्वारा भारतीय संस्कृति को पहचानना, जिससे पाश्चात्यों के मन में एक भ्रम पैदा होता है कि यहाँ भी रिलिजन है। 

2. भारतीयों को; थियालोजी की पृष्ठभूमि से आये हुए इन नये शब्दों का अर्थ समझ में नहीं आता है। इसके साथ अनुवाद करते समय देसी शब्दों का जो उपयोग होता है, उसका भी अर्थ पलट होकर, देसी शब्दों का मूल अर्थ भी भूल जाने की स्थिति पैदा होती है। इस अनुवाद की प्रक्रिया में भारतीय संस्कृति से सम्बन्धित परिभाषाओं का अर्थ विकृत होता है। 

थियालोजी की परिकल्पना से हिन्दूइज्म को देखने परखने के कारण पाश्चात्य चिन्तकों को लगा कि हिन्दूइज्म में भी क्रिश्चियनिटी की तरह एक रिलिजन की परिकल्पना है। ध्यान देने की बात यह है कि उन लोगों ने देसी परिभाषाओं को आधार बनाकर ही हिन्दुइज्म को देखने का प्रयास किया। विपर्यास की बात यह है कि हमारी देसी परिभाषाओं का भी थियालोजी के चौकट में ही अर्थ निकला; न कि हमारे मूल अर्थ में। इसके फलस्वरूप अंग्रेजी भाषा में क्रिश्चियनिटी के ढांचे में हिन्दूइज्म पैदा हुआ। यूरोपीय भाषाओं में हिन्दूइज्म का जो वर्णन आया वह उन को अच्छी तरह समझ में आता है क्योंकि वह उनकी अपनी परिभाषा में वर्णित है। पर जब उन वर्णनों को देसी भाषा में अनुवाद किया जाय तो, जिन लोगों को थियालोजी का परिचय ही नहीं है, उन्हें उनका मूल अर्थ मालूम ही नहीं होता है। उसी बीच हमारे पढ़े लिखे लोगों से साम्प्रदायिक अर्थ ढूँढ़ने की प्रक्रिया भी नष्ट हो जाती है। उन्हें यह बात भी समझ में नहीं आती है कि थियालोजी की परिभाषाओं से उत्पन्न वाक्य से अर्थ के बजाय अनर्थ ही निकलते हैं। 

Authors

  • S. N. Balagangadhara

    S. N. Balagangadhara is a professor emeritus of the Ghent University in Belgium, and was director of the India Platform and the Research Centre Vergelijkende Cutuurwetenschap (Comparative Science of Cultures). His first monograph was The Heathen in his Blindness... His second major work, Reconceptualizing India Studies, appeared in 2012.

  • Dr Uma Hegde

    (Translator) अध्यक्षा स्नातकोत्तर हिन्दी अध्ययन एवं संशोधूना विभाग, कुवेंपु विश्वविद्यालय, ज्ञान सहयाद्रि शंकरघट्टा, कर्नाटक

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