मोनोथेइज्म अथवा एकेश्वरवाद के अनुसार गॉड एक ही है। क्रिश्चियानिटी के अनुसार एक देवोपासना ठीक है। भारत में प्रचलित बहुदेवोपासना को पाश्चात्यों ने पाॅलिथेइज्म अथवा बहुदेवोपासना कहकर पुकारा और इसे गलत आचरण भी कहा। आगे चलकर भारतीयों ने भी उनके हाँ में हाँ मिलाई।
‘एकं सत् विप्राः बहुधा वदंति’ ; ‘देव एक नाम अनेक’ आदि उक्तियाँ हम सभी को मालूम है। यह हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण उक्ति है। पाश्चात्य विद्वान जो ‘रिलिजन’ के विकास की कहानी सुनाते आये हैं; उसके अनुसार प्राचीन काल में भारत में बहुदेवोपासना पद्धति थी। कालांतर में वह एक देवोपासना में परिणत हुई। ‘देव एक नाम अनेक’ वाली उक्ति इसी का दृष्टांत है। हम हमारी परंपरा के आलोक में उपरोक्त बातों को समझने का प्रयास कर चुके हैं। जैसे- परमतत्व नामक निर्गुण निराकार तत्त्व को विभिन्न नाम से पुकारते हैं। हमारे सम्प्रदाय में शिव विष्णु आदि देवताओं की महिमा की कल्पना जो है उसमें एक ही परम तत्त्व की कल्पना निहित है। इन्हीं देवताओं के सहस्त्र नाम भी हैं। वे सहस्र नाम शिव, विष्णु व ललिता आदि देवी-देवताओं के होते हैं।
उपरोक्त परम तत्त्व की उपासना का विचार एक देवोपासना का उदाहरण नहीं है। एक देवोपासना और बहुदेवोपासना आदि परिकल्पनाएँ रिलिजन के मूल से आयी हुई हैं। ये परिभाषाएँ ‘मोनोथेइज्म, पाॅलिथेइज्म शब्दों के अनूदित रूप हैं। मोनोथेइज्म के अनुसार वही सच रिलिजन है जिसमें एक ही भगवान है, वही गॉड है। गॉड तीन रूपों में अभिव्यक्त है। वे रूप, पिता, बेटा (क्रिस्त) और होली (Holy) स्पिरिट हैं। रिलिजन की भाषा में उसे पोलिथेइज्म बोलते हैं। उसे बहुदेवोपासना नाम से भाषांतरण किया गया है। क्रिश्चियन लोग गॉड के तीनों रूप एवं नाम होते हुए भी गॉड एक ही है कहकर समर्थन करते हैं। उनके अनुसार गॉड एक ही है उसके तीन रूपों में उपासना करना बहुदेवोपासना है।
रिलिजन के शब्द भंडार से निकली इन परिभाषाओं को पाश्चात्य विद्वानों ने वैज्ञानिक परिभाषा बना दिया। वह अन्य संस्कृतियों का वर्णन करने वाली सार्वत्रिक परिभाषा बन गयी। जब हिन्दूइज्म का सवाल आया तब पाश्चात्य विद्वानों को गलतफहमी हुई कि हिन्दुओं के बहुदेवोपासना के पीछे एक ही भगवान है। इसी कारण उन्होंने समझ लिया कि यहाँ भी मोनोथेइज्म और पाॅलिथेइज्म की परिकल्पना मौजूद है। उन्होंने इसे रिलिजन के विकास की गाथा के साथ जोड़ दिया। परन्तु भारतीय सम्प्रदाय में लोग अपने असंख्य देवी-देवताओं को एक नहीं मानते हैं। वे विभिन्न देवी-देवता ही हैं। इन देवताओं के विभिन्न नामों के विभिन्न रूप हैं। विभिन्न प्रकार की उपासना पद्धतियाँ हैं, विभिन्न पंथ हैं। ऐसी संस्कृति में रिलिजन के विकास को ढूँढ़ने आये पाश्चिमात्य विद्वानों को बहुत बड़ी समस्या का सामना करना पड़ा।
सेमेटिक रिलिजन में एक ही गॉड है, परन्तु प्राचीन रोमनों में, दुनिया के कई जनजातियों में अनेक देवी-देवता हैं। इसलिए उन्हें यहाँ के देवी-देवताओं को गॉड्स कहकर पुकारना पड़ा। भारत की संस्कृति में इन भाषांतरकारों के सामने एक और समस्या आई कि यहाँ देवता के साथ देवी नामक स्त्रीलिंग रूप भी है। यहाँ देवी-देवता समान हैं। देवताओं की उपासना की तरह देवी उपासना भी लोकप्रिय है। सेमेटिक रिलिजनों में गॉड इनसे दूर है। भाषा में उसे पुरुष वाचक संज्ञा से ही पहचाना जाता है। एक ही गॉड होने के कारण वहाँ कोई समस्या नहीं होती परन्तु भारत में देवियाँ भी हैं। उन्हें किस नाम से पुकारा जाय? देवताओं के बहुवचन को गॉड्स कह सके तो देवियों को कैसे पुकारा जाय? इसीलिए देवियों को ‘गॉडेसेस’ कहना पड़ा।
यह केवल अनुवाद की समस्या नहीं है। बल्कि समस्या यह है कि भारत जैसी संस्कृति में ‘गॉड’ के लिए समान परिकल्पना ही नहीं है। आपको बिल्कुल आश्चर्य होगा कि भारतीय संस्कृति में ये नहीं, वो नहीं कहते आये हैं अब गॉड भी नहीं है क्या? मेरा कहना यह है कि हमारी संस्कृति में देवी-देवता जरूर हैं। परन्तु गॉड नामक True God कहलानेवाला भगवान नहीं है। गॉड शब्द का अर्थ यह है कि वह सृष्टि से पहले, उसके बाद में, अर्थात् सदैव विद्यमान रहता है। इस संसार की सृष्टि के पीछे उसका उद्देश्य है, उसके अलावा उससे सृजित संसार में और कोई देवी-देवता की संभावना ही क्या, कल्पना भी असम्भव है। यदि कोई अन्य देवता के बारे में कहे तो उनका दृढ़ विश्वास है कि वह सच्चा गॉड हो ही नहीं सकता। वह झूठा गॉड हो सकता है। रिलिजन के अनुयायियों के अनुसार गॉड मात्र सच्चा देवता है। गॉड के बारे में उनके पास समर्थन है। उनके अनुसार गॉड ही स्वयं प्रकट होकर अपने मानवरूपी प्रवादि को हकीकत बताया है। यह विचार उनके पवित्र ग्रन्थ में ही उल्लेखित है। इसीलिए वह कपोल कल्पित कहानी नहीं है। सत्य है, वह ही True God है।
क्रिश्चियानिटी के अनुसार सारा संसार उसका ही सृजन है, तो संसार के लोग भी उसी के सृजन हैं। इसीलिए वही मनुष्य मात्र के लिए True God है। ऐसी स्थिति में अन्य लोग उसे छोड़कर अन्य देवी-देवताओं का नाम लेते हैं तो वह कैसे सच हो सकता है? इसीलिए इस संसार में गॉड के बगैर अन्य देवता गॉड हो ही नहीं सकते हैं। इसीलिए अंग्रेजी में (God) कहकर पहले अक्षर को कैपिटल में लिखते हैं। उसके बदले मूर्तिपूजक संस्कृतियों के देवताओं का नाम स्माल अक्षर में (god) लिखते हैं। मतलब यह है कि मूर्तिपूजक संस्कृतियों का गॉड सच्चा गॉड नहीं है।
क्रैस्त मिशनरियों ने समझा था कि भारतवासी भी उनके बाइबिल की कहानी में आने वाले नोवा की संतान ही हैं। और ये लोग गॉड को अभी भी याद करते हैं, परन्तु जब ये मिशनरी लोग खुद भारत आये तब उन्हें लगा कि यहाँ के देवताओं और उनके गॉड में कोई सम्बन्ध नहीं है। गॉड कहलाये जाने वाली यहाँ की मूर्तियाँ, इनका पूजा विधान आदि देखने के बाद उन्हें लगा कि अपने गॉड और रिलिजन की कल्पना यहाँ के रीति रिवाज से कोई सम्बन्ध हो ही नहीं सकता। उन्हें बात कुछ अटपटी जरूर लगी। तब उन्हें रिलिजन से जो रुझान प्राप्त हुआ है उसके प्रकाश में इन संस्कृतियों को समझने का प्रयास किया। इन समस्याओं को दूर करने की प्रक्रिया में उन लोगों ने दो प्रकार के कारण बताकर फिलहाल में आयी समस्या को टालने का प्रयास जारी रखा। उन्हें लगा कि इनकी स्मृति में सृष्टिकर्ता है, इसी कारण से ही ये लोग इन सभी देवताओं की पूजा-आराधना करते आये हैं। ये सब गॉड से सम्बन्धित जरूर हैं! परन्तु कैसे भटक गये? क्रिश्चियन थियोलजी की कहानियों में इन भारतीयों के भटकने की पहेली का भी उत्तर मिला। उस कहानी के अनुसार डेविल नामक एक व्यक्ति है, वह गॉड का कट्टर दुश्मन है। वह झूठ-मूठ देवताओं के रूप में आकर लोगों को भटकाकर गॉड से दूर कर देता है। डेविल के धोखे की वजह से लोग गॉड के लोक में जाने के बदले नरक जाते हैं। इसीलिए ये अनगिनत देवी-देवता ढोंग मात्र के देवता हैं। इनमें एकमात्र भी सच्चा गॉड नहीं है।
उपरोक्त विचार पर क्रैस्त मिशनरियों का गाढ़ा विश्वास था। भारत का अध्ययन करने आये; आधुनिक विद्वान लोग उपरोक्त विश्वास से प्रभावित होकर रिलिजनों का इतिहास बुनने लगे। उनका कहना यह था कि सभी संस्कृतियों में गॉड को ढूँढ़ने का प्रयास हुआ है। उसके फलस्वरूप दुनिया भर में रिलिजन है। पाश्चात्य लोग एकेश्वरवाद व एकदेवोपासना को ‘मोनोथेइज्म’ कहते हैं। उन विद्वानों का विश्वास था कि ऐसा एकदेवोपासना ही सच्चा रिलिजन है। यह क्रिश्चियनिटी ही श्रेष्ठ रिलिजन है आदि विचारों से प्रभावित पाश्चात्य विद्वानों ने रिलिजन के विकास के इतिहास को लिखा।
इस विकास प्रक्रिया में बहुदेवोपासना निम्न स्तर का होता है और एकदेवोपासना ऊँचे स्तर में ठहरता है। इसी कारण से सभी सेमेटिक रिलिजन पूर्णरूप से विकसित रिलिजन हैं। पाश्चात्य विद्वानों को लगा कि भारतीय संस्कृति में अनगिनत देवी-देवताओं की परिकल्पना है। इस प्रकार की धार्मिक परिस्थिति में भी यहाँ सच्चे भगवान की तलाश जरूर हुई है। इस बात के प्रमाण भी उन्हें मिले थे। उदाहरण के लिए ‘एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति’ अथवा देव एक नाम अनेक। उन्होंने तर्क किया कि इनके पवित्र ग्रन्थ में इस प्रकार के वाक्य मिलने का अर्थ एकेश्वर की कल्पना थी। अर्थात् सत् एक ही है उसे विप्रों ने बहु रूप बना दिया है। तो उन्होंने एकं सत् वाले श्लोक के आधार से निर्णय लिया कि प्राचीन भारत में एकेश्वरवाद की परिकल्पना थी।
उपरोक्त पाश्चात्य जानकारी को नींव बनाकर उन्नीसवीं सदी के भारतीय पुनरुज्जीवन के सन्दर्भ में सुधारणावादीयों ने समर्थन किया कि प्राचीन काल में भारत में एकेश्वरवाद था। उसमें भी निराकार सत्ता की उपासना श्रेष्ठ है। ऐसा कहते हुए, भ्रष्ट हिन्दूइज्म के सुधार के लिए सश्रम प्रयास करने में एक हद तक सुधारणावादी सफल हुए। उन सुधारकों ने एलान किया की “भारत में प्रचलित बहुदेवोपासना अन्धविश्वास है, जब तक ये लोग उससे बाहर नहीं आते तब तक इनका उद्धार असम्भव है।” उन्होंने भारतीय परम्परा में एकेश्वरवाद (मोनोथेइज्म) के अस्थित्व को दिखाने का प्रयास किया। हमारे देवी-देवताओं में ऐसे सेमेटिक True God को देखने के प्रयास में ‘भगवान एक नाम अनेक’ वाला अर्थ ही मिलता है। इन्होंने दावा किया कि प्राचीन भारत के धार्मिक सम्प्रदायों में एकेश्वर की परिकल्पना थी इसी कारण हिन्दूइसम् रिलिजनों में है। हमारे किसी भी देवी-देवता की तुलना सेमेटिक रिलिजन के गॉड के साथ कदाचित नहीं हो सकती है। हमारे यहाँ एक निराकार सत्ता की परिकल्पना जरूर थी, परन्तु उसे सेमेटिक True God वाली परिकल्पना कहकर रिलिजन के विकास की कहानी के साथ जोड़ नहीं सकते। हमारी परम्परा में परमात्मा व परम तत्त्व जो हैं वह एक व्यक्ति नहीं हैं वह अनुभूति है। निराकार परब्रह्म तत्त्व हममें ही निहित है, उसे महसूस करना ही ज्ञान है। अथवा ज्ञानोदय है। हमारा आध्यात्म सम्प्रदाय बताता है कि; जो व्यक्ति परमतत्त्व में समाया हुआ होता है अथवा साधक और परमतत्त्व के बीच द्वंद्व नहीं रहता है तब साधक स्वयं परमतत्त्व में समाने की कोशिश करता है। सेमेटिक रिलिजन की परिकल्पना में उपरोक्त ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ वाली बात नामुमकिन है। यदि कोई कहे तो पाप भी हो सकता है। गॉड इस संसार की सृष्टि करके सृजनहार कहलाता है। इस अर्थ से देखा जाय तो हमारे कोई देवता सृष्टिकर्ता नहीं है। ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता जरूर कहते हैं, परन्तु ब्रह्मा के पहले ही विष्णु थे आदिशेष, क्षीरसागर महालक्ष्मी आदि थे। हमारे यहाँ यह कहानी नहीं है कि इन देवताओं ने किसी उद्देशपूर्ति के लिए इस संसार की सृष्टि की है। सेमेटिक गॉड ऐसा नहीं है। उसके लिए इस सृष्टि के पीछे एक उद्देश्य और कारण था। हमारे देवता भी जगन्नियामक हैं परन्तु उनका कार्य लीला मात्र है अथवा माया है। उनके कार्य के पीछे कोई युक्ति अथवा हिसाब-किताब वाली पृष्ठभूमि नहीं है।
परमतत्त्व के साक्षात्कार के पथ में हमारे सभी देवी-देवता और उनकी साकार मूर्तियाँ साधन हैं। कहा जाता है कि निराकार तत्त्व का साक्षात्कार आम लोगों से होने वाली बात नहीं है। इसलिए देवताओं की मूर्तियों की कल्पना की गयी है। हमारा धार्मिक सम्प्रदाय बताता है कि ये विभिन्न देवता और मूर्ति पूजा परम तत्त्व के साक्षात्कार के लिए साधक हैं। जब तक ये जानकारी साधक में नहीं रहती है वह बिना जाने केवल पूजा मात्र करता है, यह मूर्खता है। जिस क्षण में परमतत्त्व का साक्षात्कार होता है अथवा साधक को ज्ञानोदय होता है उसी पल में नाम रूपादि भाव लुप्त हो जाते हैं। हमारे आध्यात्मिक पंथों की इन वैशिष्ट्य को जाने बिना अथवा उसकी उपेक्षा करके रिलिजन के तहत देखने के कारण पाश्चात्य विद्वानों को लगा कि भारतीय धार्मिक सम्प्रदाय में भी एकेश्वरवादी परिकल्पना है।