भारतीय लोग हिन्दूइज्म को एक रिलिजन समझ गये थे तथा वे मान चुके थे कि अपने मन्दिर भी चर्च की तरह धार्मिक संस्थाएँ हैं। परन्तु ऐसी समस्या आई कि कई मन्दिरों में कुछ लोगों के लिए प्रवेश निषेध है। इसको मानवी असमानता मानकर भर्त्सना हुई। परन्तु बात यह है कि मन्दिर कभी चर्च नहीं हो सकता।
पिछले एक शतक से सवर्णों के मन्दिर में दलित अस्पृश्यों के प्रवेश को लेकर अनेक आन्दोलन हो चुके हैं। इसी विषय को लेकर मारपीट, तानाबाजी, हत्याकांड भी हो चुके हैं। महात्मा गांधी और अम्बेडकर जैसे महान व्यक्तियों ने भी दावा किया है कि अस्पृश्यों का मन्दिर प्रवेश सामाजिक असमानता और शोषण का प्रतीक है। इस विषय पर अक्सर दो प्रकार के आरोप लगाये जाते हैं
- मन्दिर हिन्दुओं का पूजा स्थान होने के नाते उसमें कई जाति के लोगों का प्रवेश निषेध न्यायसम्मत नहीं है।
- इस प्रकार मन्दिर प्रवेश का निषेध करके कई जाति के लोगों के धार्मिक स्थान-मान का अनादर होता है, जिससे जाति जातियों के बीच ऊँच-नीच भावना को प्रश्रय मिलता है।
इसके पीछे उच्चजातियों का षड्यंत्र है कि निम्न जाति के लोगों का शोषण सदा कर सकें। यह भी आरोप लगाया जाता है कि मन्दिर प्रवेश निषेध के पीछे पुरोहितशाही का षड्यंत्र है।
उपरोक्त दूसरा आरोप जो है उसकी उत्पत्ति जाति व्यवस्था की कहानी पर आधारित है। इसी तथा-कथित कहानी के आधार से वकालत की जाती है कि उच्च जात के लोग निम्न जात के लोगों का शोषण सदियों से करते आये हैं, परन्तु उपरोक्त जाति व्यवस्थावाली कहानी सच नहीं है। इसके लिए कोई आधार नहीं है। उसकी चर्चा बाद में करेंगे। इसीलिए इस विषय को छोड़ देंगे कि ऐसे आचरण के पीछे कौन सा उसूल है? हम इस बात की चर्चा करेंगे कि किस पृष्ठभूमि के आधार से मन्दिर प्रवेश निषेध वाले विचार की चर्चा होती है। हमारा सामान्य ज्ञान यह है कि भारत में हिन्दू नामक रिलिजन है, तथा हमारे समस्त मन्दिर रिलिजन के पूजा स्थान हैं। क्योंकि ये किसी न किसी हिन्दू देवताओं से सम्बन्धित मन्दिर हैं, जैसा कि शिव, विष्णु, गणेश, काली दुर्गा आदि। ये सब हिन्दूइज्म के देवता हैं। इसीलिए वहाँ पूजा आराधना करने वाले सब हिन्दू हैं। वो किसी भी जात के क्यों न हो। काली, दुर्गा, शिव, विष्णु आदि मन्दिर हिन्दू मन्दिर कहलाते हैं। मन्दिर जाने वाले कोई भी व्यक्ति वह मंदिर हिन्दू मन्दिर है कहकर वहाँ नहीं जाते हैं। वह उनके लिए केवल मन्दिर है। तो हिन्दू मन्दिर कहने की प्रथा कब से शुरू हुई? हम आधुनिक लोग ऐसा कहते हैं प्राचीन काल में ऐसा ‘हिन्दू’ विशेषण नहीं लगाया जाता था यह ‘हिन्दू’ विशेषण के साथ ही हमारे पूजा पाठ से संबंधित परिकल्पना ही बदल जाती है। यह बदलती परिकल्पना के साथ लोगों की पूजा पाठ से सम्बन्धित परिकल्पनाएँ भी बदल जाती है। लोगों के बीच आचरण से सम्बन्धित संघर्ष उत्पन्न होता है। हम आगे चर्चा करेंगे कि मन्दिर प्रवेश को लेकर यह समस्या आधुनिक काल में कैसे उत्पन्न होती है।
यदि हम सोचेंगे कि हमारे सभी मठ-मन्दिर हिन्दू रिलिजन के अनुयायियों के हैं, तो बिल्कुल ठीक है कि सभी हिन्दुओं के लिए मन्दिर का प्रवेशाधिकार समान रीति से मिलना चाहिए। परन्तु हम जिसे हिन्दूइज्म कहते हैं वह मूलतः रिलिजन है ही नहीं। क्रिश्चियन रिलिजन के अनुयायियों ने गलतफहमी से चर्च और मन्दिर के बीच के अन्तर को बिना देखे-परखे एक समान कह दिया। तब से समस्या शुरू हुई है। इस समस्या के पीछे क्रैस्त चर्चों की परिकल्पना तथा उनसे सम्बन्धित प्रोटेस्टैंट समय की चर्चा जो है वह काम करती है। प्रोटेस्टैंट आन्दोलन के समय में कैथोलिक रिलिजन में अनेक सुधार हुए। उस वक्त कैथोलिक चर्च की कटु आलोचना की गयी। कैथोलिक चर्च की रीति-नीति की निंदा करने वालों का दावा यह था कि ‘सभी को गॉड के साथ सीधा सम्बन्ध रखने का समान अधिकार है। पंरतु मध्यवर्ती पुरोहितशाही ने कैथोलिक चर्च को एक श्रेणीकृत व्यवस्था बनाकर आम लोगों का शोषण किया। यहाँ ‘सभी’ का मतलब केवल क्रिश्चियन लोगों को। यहाँ ‘सभी’ विशेषण क्रिश्चियन के अलावा अन्य किसी समुदाय के लोगों के साथ नहीं लगता है। तो स्पष्ट होता है कि यह समानतावाली बात केवल क्रिश्चियन समुदाय के रिलिजन के सन्दर्भ में लागू होती है। क्योंकि उनके पवित्र ग्रन्थ में गॉड का आदेश है कि प्रत्येक क्रैस्त को चर्च के धार्मिक आचरण में समानाधिकार होगा। यदि सभी को समानाधिकार नहीं दिया जाय वह गॉड की इच्छा के विरुद्ध होता है, इसीलिए वह अन्याय और पाप है।
यदि उपरोक्त क्रैस्त रिलिजन से सम्बन्धित विषय को भारतीय धार्मिक सम्प्रदायों के साथ जोड़ दिया जाय, तो एक मौलिक प्रश्न उठता है कि क्या ‘हिन्दू’ एक रिलिजियस समुदाय है? क्या हमारे सभी मठ मन्दिर उसके चर्च हैं? जब पाश्चात्य लोग भारत आये तब हमारे देवताओं को, हमारे मन्दिरों को उन्होंने हिन्दूइज्म कहकर पुकारा। उनका विश्वास था कि हमारे चर्च की तरह इनके मन्दिर हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि ‘इसके मन्दिर हमारे चर्च जैसे नहीं हैं।’ हिन्दूओं के मन्दिर चर्च जैसा बिल्कुल नहीं; फिर भी, हिन्दूइज्म की तरह इनके मन्दिर भी कुछ अटपटा है कहकर इसकी हँसी उड़ाई। इस तरह हमारे धर्माचरण के बारे में हमारे मन्दिरों के बारे में उन्होंने, अपना अभिमत व्यक्त किया था। उसी को हम मान चुके हैं। मन्दिर प्रवेश से सम्बन्धित आज के न्याय अन्याय की चर्चा इसी क्रिश्चियन थियोलोजी की पृष्ठभूमि से ही निकली हुई है। यदि हमारा हिन्दूइज्म क्रिश्चियन अथवा इस्लाम की तरह रिलिजन नहीं है तो यह समस्या कैसे दिखती है? आगे उसी की चर्चा करेंगे।
एक रिलिजन में अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए कई नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। पहली शर्त यह है कि उसे अपने डाक्ट्रिनों को आगे की पीढ़ी को पहुँचाना और उस पर के विश्वास को भी बनाये रखना पड़ता है। इसीलिए वो अपने सारे सदस्यों को एक ओर इकट्ठा करके कुछ धार्मिक आचरण करते हैं और धार्मिक प्रवचन देते रहते हैं। इस प्रकार रिलिजन के आचरणों द्वारा लोगों को केंद्रित करके नियंत्रण करते हैं। इसी मूल कारण से चर्चों की स्थापना हुई है। क्रिश्चियनिटी का प्रसार एवं चर्च नामक संस्थाओं के प्रसार के बीच एक अविनाभावी सम्बन्ध है। क्रैस्त रिलिजन का अनुयायी होने के लिए इन चर्च का सदस्य होना अनिवार्य शर्त है। चर्च के सदस्यत्व के साथ ही उसका रिलिजन में प्रवेश होता और उसके द्वारा गॉड के पास जा सकते है। चर्च के अलावा उनको रिलिजन का आचरण करने के लिए दूसरा कोई उपाय नहीं है। इस प्रकार गॉड तक पहुँचने का एक मात्र मार्ग चर्च में केंद्रित हुआ करता है। इसीलिए रिलिजन के सभी सदस्यों को चर्च में समानाधिकार होना स्वाभाविक है। यदि कोई चर्च के प्रवेश पर पाबंदी लगाये तो उसका अर्थ चर्च प्रवेश तक सीमित नहीं रहता है, बल्कि उससे रिलिजन का द्वार भी बंद होता है, जिससे उस व्यक्ति के उद्धार का निषेध होता है।
हमारे मन्दिरों के रीति रिवाज अलग हैं। मन्दिर हिन्दू कहलाने वाले सभी लोगों का सार्वजनिक केंद्र नहीं है। भारतीय सम्प्रदाय में ऐसा सोच भी नहीं सकते। हम चर्च की परिकल्पना को मन में रखकर मन्दिर प्रवेश से सम्बन्धित समस्या को पैदा करते हैं। क्योंकि हर हिन्दू के घर में पूजा स्थल रहता है। अपने इष्ट देव को वहीं रखकर अपनी इच्छा के अनुरूप पूजा पाठ करते रहते हैं, नेम नियम रख सकते हैं। देव पूजा करने अथवा प्रार्थना करने के लिए मन्दिर ही जाने की पाबंदी नहीं है। प्रायः हर गाँव व शहर में ब्राह्मणों से लेकर अस्पृश्य जातियों के उनके अपने कुलदेव होते हैं, उनका अपना मन्दिर भी रहता है। पुजारी भी उनके अपने होते हैं, आचरण पद्धति भी अलग होती है। सभी जात के लोगों को एक ही मन्दिर जाने की आवश्यकता भी नहीं होती है। इन सभी मन्दिरों को एक सूत्र में पिरोने वाला एक मात्र धर्म ग्रन्थ अथवा पुरोहित वर्ग भी यहाँ नहीं है। पूरे हिन्दुओं के धार्मिक आचरण में ही विविधता लक्षित होती है, न इसमें कोई ऊँच-नीच है।
गाँवों में प्रायः सवर्णों के मन्दिर में अस्पृश्यों का प्रवेश निषिद्ध है। शहरों के मन्दिर में ऐसा आचरण नहीं होता है। लोगों की भीड़ होती है। कई ऐसे मन्दिर भी होते हैं, जिनकी अपनी विशिष्ट पद्धतियाँ होती हैं। कई मन्दिर ऐसे हैं जहाँ सभी जात के लोग अन्दर जाकर भगवान की मूर्ति की पूजा स्वयं कर सकते हैं। उत्तर भारत में प्रायः सभी मन्दिर सबके लिए खुला रखने की पद्धति दिखाई देती है। दक्षिण में भी कई मन्दिर ऐसे ही हैं। कई मन्दिर ऐसे भी हैं जहाँ केवल पुजारी अन्दर जा सकता है। अन्य किसी को गर्भगृह प्रवेश नहीं है। कई मन्दिरों में कुर्ता-बनियान निकालने के बगैर अन्दर प्रवेश निषिद्ध है। कार्तिकेय के मन्दिर में स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध है। कई मन्दिरों में कई जाति के लोगों के लिए प्रवेश निषिद्ध है। इस प्रकार मन्दिर से सम्बन्धित आचरणों में एकरूपी नियम नहीं दिखाई देता है। सभी मन्दिरों में एक सामान्य नियम होता है, चप्पल-जूते निकालकर प्रवेश करने का। ऐसी परिस्थिति में यदि किसी एक मन्दिर में किसी का प्रवेश निषिद्ध है तो उसका अर्थ यह नहीं होता है कि उसे धर्माचरण से ही वंचित किया जाता है।
और एक बात हमें स्पष्ट करनी होगी कि हिन्दू धर्म में भगवान के साक्षात्कार के लिए केवल एक मार्ग नहीं है जो रिलिजन में होते हैं। भक्त के लिए अनगिनत मार्ग हैं। वास्तविकता यह है कि अनेक महात्माओं ने स्पष्ट रूप से कहा है कि किसी भक्त को मन्दिर जाना, मूर्तिपूजा आदि आचरणों से मुक्त हुए बिना मुक्ति नहीं मिलती है। इसीलिए हमारे मन्दिर जाने अथवा मूर्तिपूजा करने मात्र से मुक्ति का मार्ग खुलता है कहना मूर्खता की बात है। हमारे मन्दिर रिलिजन वालों के चर्च जैसे नहीं है। हमारे प्राचीन संतों, महात्माओं में अनेक लोग अस्पृश्य जात के हैं। वे मन्दिर जाना या मूर्तिपूजा करने के बगैर भगवान का साक्षात्कार पाये थे। प्राचीन संतों ने तो मन्दिर संस्कृति की विडंबना ही की है। हमारे सम्प्रदाय में इन सबके लिए ठोस उदाहरण मिलते हैं। ब्रिटिशों के शासन काल में भारतीयों से संबंधित विधियों की रचना हुई जिसको आधार बनाकर भारतीय धार्मिक आचरणों से सम्बन्धित विवादों का परिहार किया जाता था। इस सन्दर्भ में भारत के किसी कोने के मन्दिर में किसी समस्या को कानूनन परिहार दिया गया उसी को सार्वत्रिक बना दिया गया। ब्रिटिश शासन की अवधि से ही एक बात प्रचलन में आयी कि भारत में अस्पृश्यों को मन्दिर प्रवेश का निषेध होता है वह अमानवीय है, जाति व्यवस्था है। भारत में दलितों के साथ अमानवीय आचरण होता है, उन्हें समान धार्मिक स्थान मान नहीं है, कहने वालों को एकाध मन्दिर, में सभी का प्रवेश निषेध वाली बात एक ठोस सबूत बन गयी। पाश्चात्यों ने इसे हिन्दूइज्म के लक्षण कहकर प्रचार किया।
मन्दिर प्रवेश से सम्बन्धित समस्या दक्षिण भारत में अधिक हुई है। क्योंकि वहाँ अनेक मन्दिरों में अस्पृश्यों का प्रवेश निषिद्ध है। परन्तु ध्यान देने की बात यह है कि अनेक मन्दिर सबके लिए खुले रहते हैं। कई सवर्णों का मन्दिर और गाँव का मन्दिर जो होता है, वहाँ यह समस्या दिखाई देती है। परन्तु अस्पृश्यों का जहाँ प्रवेश निषिद्ध है, वहाँ अन्य धार्मिक कार्यों में वे भाग ले सकते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि भारत के सभी मन्दिरों में दलितों के लिए प्रवेश निषिद्ध होता है, कहना अथवा यह भारतीय मन्दिरों की आम नीति है, कहना गलत है।