पाश्चात्यों ने जिन समाज को देखा उन सभी में रिलिजन को पाया। भारत में उन्हें हिन्दूइज्म, बुद्धिइज्म, जैनिइज्म आदि रिलिजन दिखाई दिये। परन्तु उन्हें संदेह भी था कि ये रिलिजन है या नहीं? उन्हें यह रिलिजन ही है कहने के लिए ठोस आधार नहीं मिले। परन्तु वे इस खोज में भटक गए।
पाश्चात्य विद्वानों को एक ओर जहाँ देखें वहाँ रिलिजन ही रिलिजन दिखाई देता है। दूसरी ओर सेमेटिक रिलिजन के अलावा अन्य रिलिजन उन्हें सच्चा रिलिजन जैसा नहीं दिखाई देता। उदाहरण के लिए भारतीय सम्प्रदायों में देववाणी, प्रवादि, पवित्र ग्रन्थ आदि को न पहचान सके। फिर भी वे कहते हैं कि यहाँ हिन्दूइज्म, बुद्धिइज्म, जैनिइज्म आदि रिलिजन हैं। यह तो ऐसी बात हो गई कोई कहे कि जिस चीज की जड़े नहीं, टहनी नहीं, पत्ते बिल्कुल नहीं फिर भी वह पेड़ है। उन्हीं का अनुसरण करने वाले हमारे पढ़े लिखे लोगों का मानना है कि ‘भारत में रिलिजन नहीं है’ कहना हमारे लिए कमी की बात है।
क्योंकि रिलिजन का अध्ययन करनेवालों का दावा है कि रिलिजन अपने सदस्यों को एक लोकदृष्टि प्रदान करती है। लोकदृष्टि अर्थात विश्व के बारे में समग्र दृष्टि (नजारा)। इसे अंग्रेजी में ‘वर्ल्ड व्यू’ बोलते हैं। विश्वावलोकन भी कहते हैं। मानव एवं समाज शास्त्रवेत्ताओं ने लोकदृष्टि की परिकल्पनाओं को सामाजिक अध्ययन में उपयोग करते हुए उसे लोकप्रिय बना दिया है। कहने का मतलब यह है कि पाश्चात्यों को अन्य संस्कृतियों का अध्ययन करते समय उसकी लोकदृष्टि को खोजना उनका परम कर्तव्य माना जाता रहा है।
आमतौर पर कहना है तो लोकदृष्टि का मतलब यह है कि; इस विश्व के कार्य-कारण के बारे में, उसकी आदि अंत्य के बारे में, मनुष्य के जन्म मृत्यु के बारे में, उसके अन्तिम लक्ष्य, जीवन का अर्थ आदि के बारे में एक समाज की मान्यताएँ (बिलीफ)। विद्वानों का कहना है कि हर संस्कृति के लोग अपनी-अपनी मान्यताओं (बिलीफ) के आधार पर अपने जीवन मूल्य को बनाये रखते हैं। उसके अनुसार हर एक संस्कृति की अपनी एक लोकदृष्टि हुआ करती है। यदि यह नहीं है तो, जैसे एक अन्धे को कुछ भी नहीं दिखाई देता है उसी प्रकार मनुष्य दिशाहीन बन जाता है। इस लोकदृष्टि को रूपायित करने का काम उस संस्कृति का रिलिजन करता है। उदाहरण के लिए क्रिश्चियानिटी अपने अनुयायियों को इस सृष्टि की उत्पत्ति, उसके पीछे का उद्देश्य, हर व्यक्ति को जीवनयापन का मार्ग आदि के बारे में निर्दिष्ट प्रकार की लोकदृष्टि देती है। उसी के आधार पर व्यक्ति का जीवन निर्भर होता है। इस अनुभव से वाकिफ लोगों को यह अवश्य लगता है कि रिलिजन ऐसी लोकदृष्टि को बांधने में सफल है। ऐसी स्थिति में यदि कोई संस्कृति में रिलिजन ही नहीं है तो वह बात निंदा जैसी लगती है।
उपरोक्त तर्क के आधार से कहना है तो एक संस्कृति में दो अंश जरूर होने चाहिए। एक रिलिजन, दूसरा उससे निकली हुई लोकदृष्टि। एक है तो दूसरा भी होना अनिवार्य है। तब और एक सवाल उठता है। लोक दृष्टि होती है; रिलिजन भी क्यों हो? बिना रिलिजन की लोकदृष्टि नहीं हो सकती है क्या? पाश्चात्य सेक्युलर विद्वानों के अनुसार यह सम्भव है। सच पूछा जाय तो यह लोकदृष्टि नामक परिकल्पना ही सेक्युलर विद्वानों की सृष्टि है। यूरोप में 17वीं सदी के उपरांत अथेइज्म और सेक्युलर आन्दोलन जो हुए वे मनुष्य के बारे में बाइबिल की जो कहानी है उसका खंडन किया था। उसके बदले मनुष्य ने अपने सामाजिक वास्तव के आधार से नये वैज्ञानिक सिद्धान्तों का निर्माण किया। उस समय उन्हें मानव के इतिहास में रिलिजन के महत्त्व के बारे में वैज्ञानिक विवरण देने की आवश्यकता पड़ी थी। तब उन्होंने यह तर्क किया की मनुष्य को लोकदृष्टि देने के लिए रिलिजन की आवश्यकता पड़ी। मतलब यह है कि सेक्युलर विद्वानों ने रिलिजन के बदले लोक दृष्टि की परिकल्पना का निर्माण किया। उनका मानना यह था की हर संस्कृति में लोकदृष्टि होती ही है और यह लोकदृष्टि उस संस्कृति के रिलिजन से प्राप्त होती है। अब उनका कहना यह था की यह लोकदृष्टि रिलिजन की जगह सेक्युलर एवं तर्कसंगत विचारों पे आधारित हो। परन्तु केवल रिलिजन से ही लोकदृष्टि प्राप्त होती है। कहने का मतलब यह है कि समाज को लोकदृष्टि बनाए रखना है तो उसे रिलिजन पर अवलंबित होना पड़ता था। क्योंकि केवल रिलिजन ही लोकदृष्टि रूपायित करने में सहायक है। इस प्रकार मध्यकालीन यूरोप में रिलिजन और लोकदृष्टि का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध था। आधुनिक काल में रिलिजन का उतना महत्त्व नहीं रहा उसके बदले विचार (Rational Thought) को महत्त्व मिला। तब सेक्युलर चिन्तकों ने सोचा कि पुरानी लोकदृष्टि तिरोहित हुई, इसीलिए नयी लोक दृष्टि को अपनाने की आवश्कयता है। उनको चिन्ता हुई कि पुरानी लोकदृष्टि के बदले पर्याय लोकदृष्टि को यदि न अपनायेंगे तो समाज की अवनति होगी। आधुनिक यूरोपियनों का दृढ़ विश्वास था कि पूरे विश्व में वे मात्र वैचारिक प्रौढ़ता को पहुँचे हुए नागरिक हैं। उनका मानना था कि इसीलिए अन्य संस्कृतियों को सेक्युलर लोकदृष्टि की समस्या आयेगी ही नहीं।
यूरोप के आधुनिक संस्कृति अध्ययनों ने अपनी सेक्युलर दृष्टि से अन्य संस्कृतियों का अध्ययन करते समय उनमें लोकदृष्टि को खोजने का प्रयास किया। उनका मानना यह था कि संस्कृति है तो लोकदृष्टि भी होनी चाहिए। उन संस्कृतियों में निहित लोकदृष्टि को कैसे पहचाना जाय? उनको लगा कि अन्य संस्कृतियों के रिलिजन को खोज लेंगे तो उनकी लोकदृष्टि भी अपने आप मालूम हो जाती है। क्योंकि पिछड़ी हुई संस्कृतियों को रिलिजन के सहारे ही लोकदृष्टि बांधनी है। इसके अलावा अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं हो सकता। एक संस्कृति के लिए यदि लोकदृष्टि बांधनी है तो रिलिजन भी किसी न किसी रूप में होना ही चाहिए, यह उनका तर्क था। इसी तर्क के मुताबिक सभी संस्कृतियों में रिलिजन ढूँढ़ने का गंभीर काम शुरू हुआ। भारत के सन्दर्भ में रिलिजन के बारे में उनकी जो कल्पना थी, उस प्रकार हमारे हिन्दूइज्म बुद्धिइज्म, जैनिइज्म आदि नहीं दिखाई दिये। इसके बदले कुछ व्यतिरिक्त अंश दिखाई दिये। तब उन्होंने सोचा कि यह भारतीय रिलिजनों की विशेषता होगी। परन्तु भारतीयों की एक लोकदृष्टि तो होनी ही चाहिए।
सवाल आता है कि भारतीय संस्कृति में इस विश्व की आदि अंत्य के बारे में, जन्म-मरण के बारे में, मरणोपरांत की स्थिति के बारे में अनादि काल से जो चर्चा होती आयी है उसे हम लोकदृष्टि के नाम से क्यों नहीं पुकार सकते? उपरोक्त विषयों पर चर्चा करने मात्र से भारत में रिलिजन है यह कहना गलत होगा, क्योंकी रिलिजन से संबन्धित अनेक विशेषताएँ भारतीय परंपराओं में नहीं मिलती है, यह हमने पहले ही दिखाया है। अगर रिलिजन नहीं है, तो लोकदृष्टि कहाँ से प्राप्त होगी? केवल विश्व की आदि अंत्य के बारे में, जन्म-मरण के बारे में, मरणोपरांत की स्थिति के बारे में, चर्चा होने मात्र से लोकदृष्टि है ऐसा नहीं कह सकते। लोकदृष्टि होने के लिए दो अनिवार्यताएँ हैं। पहला यह की उपरोक्त विषयों पर रिलिजियस किताब में दिए हुए वर्णन सम्पूर्ण सत्य हैं इस पर उस समाज का विश्वास (बिलीफ) होना चाहिए। दूसरा, उस समाज के आचरणों का मूल इन चर्चाओं के सत्यता पर निष्ठित, आधारित एवं रूपायित किया जाये। यही विश्वास का आधार हो। हर संस्कृति में विश्व के प्रति व जीवन के प्रति कुछ कल्पनाएँ होती हैं परन्तु वे सब लोकदृष्टि नहीं कहलायेंगी। क्योंकि भारतीय पुराणों की कहानियों को हमने कभी सत्य की कसौटी में नहीं कसा और ये सब हमारे लिए डॉक्ट्रिन भी नहीं है और देवाज्ञा भी नहीं।
उदाहरण के लिए एक लोकदृष्टि सच होने के लिए उस समुदाय को मानना चाहिए कि उसमें वर्णित कथाएँ सचमुच घटी थी। उदाहरण के लिए विश्व की सृष्टि की कहानी लीजिए। हमारे अलग-अलग सम्प्रदाय की अलग-अलग ही कहानियाँ हैं, तो इसका मतलब यह होता है कि एक-एक सम्पद्राय की प्रत्येक सत्य कथा होनी चाहिए। इसके विपरीत यहाँ एक ही सम्प्रदाय के अलग-अलग ग्रन्थों में अलग प्रकार की ही कहानियाँ निरूपित हुई हैं। कथा वाचक अलग-अलग रीति से एक ही कथा का निरूपण कर सकता है। वह कथा निरूपण करते समय महत्त्वपूर्ण होंगे। परन्तु ये सभी सत्य घटना से आधारित होने का दावा नहीं करते हैं। एक ही घटना अनेक रीति से तो नहीं घट सकती है। इतना ही नहीं हमारे यहाँ यह विश्वास है कि सृष्टि के पूर्व में भी कुछ था। इसी कारण से सही अर्थ में वह यह परिपूर्ण सृष्टि ही नहीं हो सकती है। हमारे सम्प्रदायों के बारे में हम इस प्रकार के विभिन्न निरूपणों को पोषित करते आये हैं। यहाँ यह चर्चा कभी नहीं हुई कि इनमें से कौन सी कहानी सचमुच घटी है या सत्य है। ऐसी विभिन्न कथाओं को स्वीकार करने में हमें क्यों आपत्ति नहीं होती है? इसीलिए कि हमारा और इन कथाओं के बीच का सम्बन्ध झूठ-सत्य के आधार से बना हुआ नहीं है। कहने का मतलब यह है कि हमारा कौन सा क्रिया-कलाप प्रापंचिक सत्य घटना से आधारित होता है। उदाहरण के लिए लोगों में एक विश्वास है कि अमुक गोली लेने से सिरदर्द कम होता है। वह गोली लेने की क्रिया जो है वह सिरदर्द जाता है कि नहीं पर निर्भर होता है। परन्तु हमारी पारंपरिक कथाएँ जो हैं वे ऐसे मार्गदर्शन के लिए नहीं बुनी हैं। इसीलिए उन्हें लोकदृष्टि का दर्जा नहीं आरोपित कर सकते हैं। भारतीय सम्प्रदाय बिना लोकदृष्टि से अपना व्यवहार निभाते हैं। हमारे यहाँ लोकदृष्टि नामक चीज है ही नहीं।
बाइबिल के उदाहरण को हमारे सम्पद्राय के विरुद्ध रखकर परामर्श करने से बात समझ में आती है। क्रिश्चियनों के अनुसार बाइबिल में जिन घटनाओं का जिक्र किया गया है वे सत्य हैं। इन घटनाओं की सत्यता की बात लेकर इतिहास में अनेक वागवाद हुए हैं। वे घटनाएँ किस स्थल में, किस काल में घटी हैं, उनके स्वरूप क्या थे आदि विषयों को लेकर अनेक चर्चाएँ हो चुकी है। सत्य घटनाओं के आधार पर निर्मित इतिहास की परिकल्पना पश्चिम में ही उपजी है। इस परिकल्पना और क्रिश्चियन की उपरोक्त धारणा के बीच अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। आये दिन भारतीय लोग पौराणिक घटनाओं की सत्यता को लेकर लड़ाई कर रहे हैं, वह पश्चिम की देन है। उपनिवेश पूर्व भारत में ऐसे विषय को लेकर कभी भी लड़ाई नहीं हुई है। ऐसी चर्चा भी कभी नहीं हुई थी।
बाइबिल की घटनाओं की सत्यता उन्हें उतना मायने क्यों रखती है? क्योंकि इन घटनाओं के आधार पर क्रिश्चियनों के आचरण निर्भर होते हैं। बाइबिल में अंकित डॉक्ट्रिनों का अनुसरण उन्हें क्यों करना है? इसीलिए कि वे सत्य घटनाओं से आधारित हैं। यह सुनकर आपको आश्चर्य होगा। पर मानना पड़ेगा कि यदि देववाणी, क्रिस्त का अवतरण आदि विषय; सचमुच नहीं घटे है तो क्रिश्चियानिटी ही सम्भव नहीं है। इन्हें सत्य मानकर ही वे लोग संसार की सृष्टि, मनुष्य की सृष्टि आदि के बारे में अपनी धारणा बनाये रखे हैं। यदि कहीं मतभेद हो तो भी बाइबिल पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाते हैं। परन्तु भारत में कोई भी सम्प्रदाय इन सत्य घटनाओं पर निर्भर नहीं है।
लोकदृष्टि जो है वह रिलिजन की सृष्टि है। यहाँ स्पष्ट होता है कि विद्वानों को क्यों लगता है कि रिलिजन है तो लोकदृष्टि भी होना जरूरी है। लोकदृष्टि जो है वह विश्वावलोकन है, वह संसार के किसी एक भाग का नहीं बल्कि पूरे विश्व का है। संसार से परे होकर देखने मात्र से यह विश्वावलोकन साध्य है। उसमें इस विश्व के भूत-वर्तमान और भविष्य समाये हुए रहते हैं। यह विश्वावलोकन गॉड से ही प्राप्त होता है। मनुष्य स्वयं नहीं पा सकता है। इस संसार का सृष्टिकर्ता उससे बाहर रहकर मनुष्यों को लोकदृष्टि प्रदान करता है। गॉड से प्रदत्त विश्वावलोकन को रिलिजन अपने अनुयायियों को एक शर्त पर देता है। वह शर्त यह है कि बाइबिल में वर्णित कहानी को सत्य समझना है। उस सत्य कथा के अनुसार स्वयं गॉड ने ही इस कथा को मनुष्य को बताया है। उसके आधार पर डॉक्ट्रिन बने हुए हैं। उन डॉक्ट्रिन के आधार पर रिलिजन के आचरण निर्धारित होते हैं। रिलिजन का आचरण तब मात्र ठीक मान सकते हैं, जब उपरोक्त कार्य-कारण श्रृंखला अस्खलित रीति से चल रही हो।
पाश्चात्य विद्वान उपरोक्त धारणा से भारत की संस्कृति को देखने के कारण उन्हें लगा कि भारत में भी रिलिजन है। हिन्दुओं के आचरणों को समझने के लिए उनके डॉक्ट्रिन को खोजना पड़ा। उन डॉक्ट्रिनों को समझने के लिए भारतीयों के धर्मग्रन्थ को ढूँढ़ना पड़ा। जब पवित्र ग्रन्थ को न पहचान सके तो दूसरे ग्रन्थों की पंक्तियों से डॉक्ट्रिनों का संग्रह किया जाने लगा। उन संग्रहित डॉक्ट्रिनों के आधार पर हिन्दुओं की लोकदृष्टि के बारे में, विद्वान लोग अध्ययन करने लगे। उनकी धारणा यह थी कि हिन्दुओं की भी एक लोकदृष्टि है और उनके मुताबिक उनका आचरण निर्धारित होता है।
उपरोक्त चर्चा से साबित होता है कि भारतीयों की कोई लोकदृष्टि नहीं है। भारत ही एक ठोस उदाहरण है कि बिना लोकदृष्टि की संस्कृति पलती-बढ़ती है।