क्रिश्चियानिटी में गॉड और ईविल नामक परस्पर विरोधी शक्तियाँ हैं। गॉड भलाई का साकार मूर्ति है तो ईविल बुराई का। एक ही स्थान में भलाई बुराई रहना नामुमकिन है। भारतीयों में यह परिकल्पना नहीं है।
ईविल का मतलब क्या है? हमेशा बुरी चाह करने वाली दुष्ट शक्ति का नाम ईविल है। डेविल नामक व्यक्ति में यह बुरी शक्ति समाई हुई रहती है। इस संसार के सृष्टिकर्ता गॉड पूर्णरीति से भला व्यक्ति है। उससे बिल्कुल उल्टा डेविल है। इस्लाम रिलिजन में उसे शैतान कहते हैं। हमेशा भलाई का विरोध करना उसका काम है। वह गॉड व भलाई के विरुद्ध लोगों को प्रेरित करता रहता है, यही उसका धंधा है। लोगों को गॉड के पास न जाने देना, गॉड के प्रति किसी में भी आस्था पैदा होने न देना। कुल मिलाकर गॉड से मिलने न देना ही उसका काम है। लोगों का मन बहलाकर, उन्हें भटकाकर उन लोगों से पाप कृत्य करवाने के लिए षड्यंत्र करना ही उसका काम है।
सेमेटिक रिलिजन वाले हमेशा कहते रहते हैं कि मनुष्य के पापकृत्य के पीछे इस ईविल का ही हाथ रहता है। सेमेटिक रिलिजन में इस प्रकार काले सफेद की तरह ही भली और बरी शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं। सेमेटिक रिलिजन की संस्कृतियों में गॉड के विरुद्ध डेविल (शैतान) रहता है। गॉड भलाई का प्रेरक है तो डेविल बुराई का। इसी तत्त्व के आधार पर भले-बुरे का विभाजन किया जाता है।
सेमेटिक थियोलोजी को सेक्युलर रूप दिया गया है। उसकी नींव में उत्पन्न हुई आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति में गॉड – डेविल की परिकल्पना केवल जीवावशेष की तरह बनी हुई है। आजकल गॉड/डेविल की परिकल्पना अप्रस्तुत हुई है। परन्तु वास्तविकता दूसरी ही है। आजकल थियोलोजिकल कथाएँ, नाम वगैरह को छोड़ दिया गया है, परन्तु आधुनिकों के सामान्य ज्ञान और नैतिक जिज्ञासा में गाॅड एवं ईविल की परिकल्पना गहराई में बैठी हुई है।
आदमी के बुरे काम ईविल से प्रेरित हैं, वह आदमी को दबोचकर उसे दूरंत में धकेल देते है। यदि यह बुरे गुण व्यक्ति में या किसी समुदाय में व्यक्त हुआ तो समझ लेना चाहिए कि वहाँ ईविल का प्रवेश हुआ है। वह व्यवस्थित रूप से मनुष्य समुदाय को हानि पहुँचाने के काम में तत्पर हुआ है। इस तर्क के कारणवश ऐसे व्यक्ति या समुदाय के प्रति बिना कारण भय या आतंक फैल जाता है। ऐसे लोगों व समुदाय के गॉड में ईविल किन-किन रूप में अवतरित होगा, न जाने क्या-क्या आतंक फैलायेगा किसी को भी अंदाजा तक नहीं होगा। इसीलिए ऐसी बुरी शक्ति से हावी हुए व्यक्ति को या समुदाय को उसका सामना करके मार भगाना जरूरी है। इस प्रक्रिया में बुरी शक्ति के दमन के सन्दर्भ में कितने भी मार-पीट हो, नर-संहार हो वह भलाई के नाम पर ही होता है। सेमेटिक संस्कृतियों में रिलिजन के नाम पर या सिद्धान्त के नाम पर जो नर-संहार हुए उसके पीछे यही सदुद्देश्य था उसमें उपरोक्त रीति का भय एवं संशय ने काम किया था। भलाई-बुराई को काले-सफेद के भेद में देखने वाली संस्कृति में किसी समाज व व्यक्ति के प्रति उपरोक्त लोकदृष्टि आम-सी बात है। उपनिवेश के कालखंड में इस ईविल के रिलिजियस एवं सेक्युलर रूप भारतीय समाज के चित्रण में पाये गये। क्रैस्त मिशनरियों ने ‘भारतीय रिलिजन’ झूठा रिलिजन है, यहाँ के लोग डेविल के वशीभूत होकर भ्रष्ट हो चुके हैं। इतना ही नहीं यह लोग डेविल के कारण स्वर्ग से भी वंचित हुए हैं कहकर; अपने ही चश्मे से भारतीय संस्कृति को देखकर उसकी व्याख्या की थी। प्रोटेस्टांटों ने एक पग आगे जाकर हिन्दूइज्म को कैथोलिक के समान घोषित किया। उन्होंने चेतावनी दी कि कैथोलिकों की तरह यहाँ के पुरोहितशाही भी डेविल के वशीभूत होकर रिलिजन को भ्रष्ट बना रहे हैं।
सेक्युलर प्रगतिवादी कथन में संसार की सभी साम्प्रदायिक शक्तियाँ मनुकुल की उन्नति में बाधक सिद्ध हुए। इस प्रक्रिया में रिलिजन भी इसी के अंतर्गत आता है। सेक्युलर चिन्तकों में एक प्रकार की धारणा पनप गयी कि भारतीय संस्कृति में भी ईविल अपनी करामत दिखाती है। परन्तु सोचने की बात कुछ और है। क्योंकि हमारी संस्कृति में डेविल की परिकल्पना ही नहीं है, तो उसकी परिचालित ईविल की संभावना भी नहीं हो सकती। अच्छा हुआ जो हमारी संस्कृति में डेविल नहीं है। सवाल उठेगा कि हमारी पौराणिक कथाओं में आनेवाले राक्षस, दैत्य-दानव, असुर आदि कौन हैं? हम देखते आये हैं कि ये लोग हमेशा देवताओं के साथ लडाई लडते या सुर मुनियों के पीड़क के रूप में चित्रित हुए हैं। इंद्र पद के या स्वर्ग के आधिपत्य के लिए हमेशा इन दोनों जातियों में झगड़ा जारी रहता है। सुरासुर युद्ध का एक अंत नहीं है। असुरों के विनाश के लिए सुर नये-नये उपाय जुटाते ही रहते थे। रक्त बीज के खून के बिंदु पड़ने मात्र से राक्षस पैदा होते थे। मृत संजीविनी जैसी अमरत्व पाने की विद्या सीखकर असुर भी सुरों से लड़ भिड़ने में पीछे नहीं हटते थे। वे बड़े मायावी होकर नये-नये रूप से देवताओं को पीड़ित करते ही रहते थे। विष्णु, शिव, राम, कृष्ण, गणेश, कुमार, काली माता, दुर्गा माता आदि हमारे देवी-देवता असुर संहार के लिए ही नये नये अवतार लेकर प्रकट होनेवाले हैं। हमारे पुराण कथाओं में राक्षसों का चित्रण अत्यंत खौफनाक ढंग से हुआ है। भारतीय शिल्प कलाओं में भी राक्षसों का चित्र कुछ इस प्रकार रहता है कि लाल-लाल आँखें, बाहर निकली हुई पुतलियाँ, बाहर निकले हए विकराल दाँत आदि। जैसे-हमारी सिनेमा जैसी कला माध्यम में भी राक्षसों का चित्र इसी प्रकार भोंडी ही रहता है। काला रंग, भोंडी आवाज, बड़ी मूंछ, बड़ी नाक, ठहाका मारकर हंसना आदि उनके सामान्य लक्षण है।
हमारे सम्प्रदाय में असुरी प्रवृत्ति बुरी मानी जाती है। हमारी पौराणिक कथाओं के अनुसार उनकी बुरी प्रवृत्ति के कारण ही उन्हें स्वर्ग से बाहर ढकेला जाता था। महाभारत कथा के अनुसार इन्हीं बुरी प्रवृत्ति के कारण दुर्योधनादि लोग अधर्मी बने। सेक्युलर चिन्तकों को एक गलतफहमी हुई है कि गॉड शब्द का अनुवाद देवता करें तो सहज ही देवताओं के विरोधी राक्षस; डेविल कहलाते हैं। परंतु जब गॉड कभी देवता नहीं बन सकेगा तो राक्षस भी कभी डेविल नहीं कहलायेंगे। कैसे? निम्नलिखित विवरणों से यह और भी स्पष्ट हो जायेगा।
हमारे पौराणिक कथाओं के मुताबिक दैत्य एवं देवता एक ही पिता की दो पत्नियों से उत्पन्न संतान हैं। ऋषि कश्यप की दो पत्नियाँ रहीं। दिति और अदिति। इनके बच्चे ही देवासुर हैं। इसीलिए देव और असुरों के बीच हमेशा युद्ध होता रहता है, पर वह दायादियों का कलह मात्र है। असुरों में अनेक लोग महा तपस्वी भी हुये है। ये तपस्या से ब्रह्माजी को प्रसन्न करके देवताओं को हराने का वर पाते थे। उसी बल से ही देवताओं को हराकर उन्हें पीड़ित करते थे। जब राक्षसों की आपत्ति ज्यादा अधिक होती तब ब्रह्मादि सभी देवता मिलकर दैत्य संहार के लिए कुछ उपाय करते थे। प्रायः अपने दिये हुए वर से जो संकट आता है उसे पहचानकर दैत्य संहार करते थे। उदाहरण के लिए किसी देवता द्वारा दैत्य की मृत्यु असम्भव है। तो देवता उपाय से किसी मनुष्य द्वारा उसका वध किया करते थे। उधर देवताओं का वर झूठा सिद्ध नहीं होता था इधर दैत्य का वध भी सम्पन्न होता था। महा धर्मिष्ट ‘बलि’ का वध करते समय विष्णु वामनावतार में आकर उससे तीन पग भूमि दान रूप में पाता है। बाद में त्रिविक्रम रूप धारण कर; बलि को धर्म भ्रष्ट बनाकर, उसे कुचल कर पाताल भेजा करता है। इस प्रकार षड्यंत्र से दैत्य दमन करने वाले देवताओं की तुलना में, कभी दैत्य भी ईमानदार सत्यनिष्ट दिखते हैं। ऐसे कदाचित ईविल नहीं बन सकते।
इन दैत्यों में सभी के सभी दुष्ट नहीं हैं। उनमें से अनेक लोग महा विद्वान भी हैं। सकल कला पारंगत भी हैं, उनकी तपस्या से तीनों लोक झटका खाता है। रावण एक महान शिवभक्त है। माँ की पूजा के लिए परमशिव के आत्मलिंग लाने का प्रयास करने वाला प्रतापी है। एक ब्राह्मण होने के कारण उसे आपत्ति का सामना करना पड़ता है। उसका संध्या वंदन करने का कट्टर नियम रहता है। इसी नियम का पालन करते समय उसके हाथ से आत्मलिंग को मजबूरी से भूमि पर रखना पड़ता है, जिसके कारण उसे आत्मलिंग खोना पड़ता है। प्रहलाद हिरण्यकश्यपु नामक राक्षस का बेटा है। पिता शिवभक्त बेटा परम भागवत राक्षसी पुत्र होते हुए भी वह हर पल विष्णु भगवान का नामस्मरण करता रहता है। वह परम भक्तों में गिना जाता है। कहीं भी उसकी दुष्प्रवृत्ति का उल्लेख नहीं होता है। वह सदैव अनुकरणीय है।
राक्षसों की दुश्मनी इंद्रादि देवताओं के साथ जरूर थी। परन्तु उनसे भी बड़े देवताओं के साथ नहीं थी। उदाहरण के लिए ब्रह्म, विष्णु और महेश के साथ का सम्बन्ध भक्त और भगवान का है। उनके अनेक असुर भक्त हुआ करते थे। ये भगवान अपने असुर भक्तों को बिना सोचे समझे वर देना; बाद में इंद्रादि देवताओं पर कोई आपत्ति आने पर स्वर्ग में कुछ खलबली मचने पर उसे दूर करने का उपाय सोचना सामान्य सी बात है। यह भगवान की लीला का ही एक अंग माना जाता है। विष्णु द्वारा बलि पाताल ढकेला जाता है। परन्तु बलि की महिमा बढ़ गयी। वह आज भी विष्णु का परम भक्त ही माना जाता है। विष्णु अपने परम भक्त बलि को भविष्य में इंद्र पद देने का कारुण्य दिखाता है और पाताल में बलि के राज महल की चौकीदारी का काम भी विष्णु ही निभाता है। भागवत पुराण के अनुसार विष्णु से समा हो जाने के लिए भक्त ही होने की आवश्यकता नहीं है। राक्षस बनकर उससे लड़कर मुक्ति पाने का मार्ग भी है। विष्णु के दशावतार के साथ अवतरित होने वाले दुश्मन और कोई नहीं हैं जय-विजय नामक विष्णु भक्त ही हैं। भोलेनाथ तो ऐसे अनेक दैत्यों के प्रिय देव हैं। इस दृष्टि से देखा जाय तो ये असुर लोग देवताओं के दुश्मन नहीं बल्कि भक्त ही हैं।
देवताओं की और एक विशेषता है। काली माता दुर्गा माता आदि मातृ देवता, भैरव, नरसिंह, शिवगण आदियों की वेश-भूषा और आकार किसी राक्षसों की वेश-भूषा अथवा आकार से भिन्न नहीं है। विकराल दाँत, रक्तसिक्त भीभत्स जिह्वा, रुंडमाला धारी, अपने पति की लाश पर भयानक नृत्य करने वाली काली माता इसके लिए एक अच्छा सा उदाहरण है। वेश-भूषा और व्यवहार में समानता होते हुए भी ऐसे देवताओं को कोई भी गलती से भी राक्षस कह कर नहीं पुकारता है। कहने का मतलब यह है कि हमारी देवी-देवताओं में भी तामस प्रवृत्ति पायी जाती है। उपरोक्त भयानक रूप का वर्णन केवल तामसी प्रवृत्ति का प्रतीक मात्र है न राक्षस या किसी देवता का रूप वर्णन। जिस प्रकार तामस गुणरूप वाले देवता मिलते हैं वैसे ही सात्विक गुणरूप वाले असुर मिलते हैं। इसीलिए किसी रूप आकार मात्र से देवी-देवता और राक्षसों के बीच भिन्नता नहीं देख सकते।
ग्रामीण देवताओं के बारे में सोचें तो विद्वानों को आश्चर्य ही होता है कि इसमें कौन राक्षस है कौन देवता? इनमें तरतम भेद करना असम्भव है। इसी कारण से ‘इंडोलोजी’ विद्वानों ने एक नये सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। कहना यह है कि भारत में प्रचलित देवी-देवता डेमन के ही विकसित रूप हैं। घुमा फिराकर उनका कहना यह है कि इंडिया में क्रिमिनल गॉड्स हैं। इसके ऊपर सांस्कृतिक प्रक्रिया का रंग पोता हआ है। दक्षिण कन्नड़ जिले में प्रचलित भूताराधना इसके लिए अच्छा उदाहरण है। इस भूताराधना को पाश्चात्य लोग डेविल वर्शिप कहकर पुकारते हैं। कालांतर में डेविल शब्द का प्रयोग बंद हुआ उसके बदले मानव शास्त्रीय विवरण देने लगे। सेमेटिक रिलिजनों में कभी भी इस प्रकार का विवरण नहीं दे सकते हैं।
सेमेटिक रिलिजनों में डेविल नर्क का अधिपति होता है। क्योंकि उसके अनुसरण करने वाले मानव नर्क जाते हैं। वह एक पापी है। अधर्मी होता है। भारतीय लोगों में नर्क की परिकल्पना भिन्न है। वहाँ नर्क का अधिपति यम धर्मराज है। वह धर्मादिपति पापियों को दंड देकर धर्मरक्षा करने वाला है। इसीलिए भारत में डेविल व ईविल वाला सिद्धान्त होने की संभावना ही नहीं हो सकती। भारतीयों की दृष्टि में पूरा का पूरा बुरा देव या पूरा का पूरा अच्छा देव की परिकल्पना ही नहीं है। ये समय सन्दर्भ के साथ बुरे भी हो सकते हैं और अच्छे भी। क्योंकि हमारे यहाँ गॉड जैसे व्यक्ति का नमूना ही नहीं मिलता। उसी प्रकार डेविल जैसे व्यक्ति का भी नमूना नहीं मिलता है। ऐसी परम्परा में पले बढ़े लोगों की सोच ही भिन्न होती है।