क्रिश्चियनिटी दावा करता है कि मनुष्य के जीवन के पीछे गॉड का उद्देश्य निहित रहता है। उस उद्देश्य को जानना ही मनुष्य जीवन की सार्थकता की खोज होती है। पाश्चात्य संस्कृति में इसका बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। परन्तु गॉड पर विश्वास न करनेवाले सेक्युलर चिन्तकों को यह केवल भटकाव है तो भारतीयों को एक अटकल मात्र है।
जीवन का अर्थ क्या है? यदि कोई पूछे तो हमें सुपरिचित प्रश्न जैसा लगता है। आधूनिक वैश्विक साहित्य में भी इस सवाल पर काफी विचार-विमर्श हुआ है। तो यहाँ ‘अर्थ’ शब्द का मतलब क्या है? हमें लगता है कि ये सवाल हमें समझ आया है। क्योंकि ‘अर्थ’ शब्द हमारा अपना शब्द है। हम बोलचाल में अर्थ शब्द को अलग-अलग तरीके से इस्तेमाल करते हैं। जैसे – पुरुषार्थ, अर्थशास्त्र, सार्थकता, इत्यादि। पुरुषार्थ शब्द का अर्थ हमें मालूम है। अर्थशास्त्र शब्द राजनीति से सम्बन्धित शास्त्र को सूचित करता है। उपरोक्त सन्दर्भ में रचित वाक्य हमारे समझ में आते हैं। हम पुरुषार्थ शब्द का प्रयोग भी करते रहते हैं। जैसे ‘किस पुरुषार्थ के लिए जीना है ? या ‘किस पुरुषार्थ के लिए यह काम करना है ? ‘जीवन सार्थक हुआ’ भी कहते हैं। यहाँ ‘अर्थ शब्द अनेकार्थी है यह बात समझ में आती है। परन्तु अर्थ शब्द के इतने से ज्ञान से, जीवन का अर्थ क्या है? इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकते हैं।
जीवन के अर्थ ढूँढ़ने की प्रवृत्ति की जड़ों की तलाश करने से पता चलता है कि यह सवाल हमारी पारंपरिक जिज्ञासा से अथवा हमारी संस्कृति से उत्पन्न सवाल नहीं है। यह अंग्रेजी वाक्य का अनुवाद है। इस वाक्य से क्या अर्थ निकलता है समझने के लिए हमें क्रिश्चियन थियालोजी की शरण में जाना चाहिए। ‘जीवन के अर्थ’ की परिकल्पना का क्रैस्थ थियालोजी में अत्यंत प्रमुख स्थान है। सामान्यतः भारत में अर्थ शब्द का वाक्यार्थ से सम्बन्ध है। अगर बोलने वाला कुछ उद्देश्य रखकर : उसे भाषा के माध्यम से दूसरे को समझाने का प्रयास करता है और यदि वह सुननेवाले को समझ में नहीं आया तो वह पूछेगा कि आप जो कह रहे हैं इसका अर्थ क्या है? पाश्चात्य चिन्तक मानते हैं कि जिस प्रकार एक वाक्य का उद्देश्य रहता है, उसी प्रकार हर व्यक्ति के जीवन का भी एक उद्देश्य अथवा कारण रहता है। वह समझ में आये तो समझ लीजिए कि जीवन का अर्थ समझ में आया है। बाइबिल यह बताता है कि गॉड ने एक उद्देश्य से संसार के सृजन के साथ मनुष्य की सृष्टि की है। मनुष्य सृष्टि के पीछे जो उसका उद्देश्य है उसे वह प्रवादि को बता दिया है। अतः गॉड के किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही इस संसार की और मनुष्य की सष्टि हुई है। परन्तु मनुष्य को उसके उद्देश्य का अता-पता मालूम नहीं है। ऐसे सन्दर्भ में मनुष्य के मन में सवाल उठता है कि गॉड ने इस संसार की रचना किस उद्देश्य से की है? मेरा जन्म किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुआ है? मेरे जीवन का अर्थ क्या है? अर्थात् मुझे किस उद्देश्य से जीना है? आदि सवाल उठते हैं। इसीलिए हर क्रैस्त यह सवाल पूछकर भगवान के उद्देश्य को समझ लेने का प्रयास करता रहता है। इन सवालों के पीछे यही विश्वास काम करता है कि गॉड ने किसी उद्देश्य को लेकर हमारी सृष्टि की है।
रिलिजन के अनुसार ‘मुझे क्या करना चाहिए? यह समझने के पहले यह समझ लेना चाहिए कि गॉड ने किस उद्देश्य से मुझे जन्म दिया है। रिलिजन (जुडाइसम, क्रिश्चियनिटि, इस्लाम) खास रीति से उसका निरूपण करते हैं। उनके अनुसार मनुष्य संतति की सृष्टि इसीलिए हुई कि मनुष्य गॉड की आज्ञा का उल्लंघन करके पाप (सिन) किया है। इसीलिए वह भ्रष्ट होकर भूमि में गिर गया है। इसीलिए मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य इस पाप से मुक्त होकर फिर से गॉड से मिलना है। तो उसे गॉड के उद्देश्य को जानना जरूरी है ताकि उसकी आज्ञा का उल्लंघन न हो सके। इसीलिए क्रिश्चियनिटी यही बताता है कि प्रत्येक मनुष्य को उसके जीवन के उद्देश्य को जानना जरूरी है।
प्रत्येक रिलिजन यह बताते हैं कि मनुष्य की सृष्टि के पीछे गॉड का एक खास उद्देश्य रहता है। परन्तु यह स्पष्ट नहीं करते हैं कि हर मनुष्य के सन्दर्भ में उसका छिपा हुआ उद्देश्य क्या रहता है। प्रोटेस्टैंट थियालॉजी के प्रकार प्रत्येक मनुष्य के सोल की रचना भगवान ने ही की है। (भारतीय भाषा में ‘सोल’ शब्द का अनुवाद ‘आत्मा’ किया है) ताकि प्रत्येक मनुष्य के जीवन का उद्देश्य, अर्थ, भिन्न-भिन्न हो सकता है। तो रिलिजन में ऐसी स्थिति का निर्माण हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति को सच्चा क्रिश्चियन बनने के लिए यह समझ लेना चाहिए कि उसके ‘सोल’ की सृष्टि किस उद्देश्य से हुई है? क्योंकि दूसरे मनुष्य के जीवन का उद्देश्य अपने जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता है। फिर भी प्रत्येक क्रिश्चियन को यह समझ में आता है कि उसके जीवन का अर्थ क्या है।
जीवन का अर्थ क्या है? इस वाक्य को उपरोक्त सन्दर्भ से बाहर रखकर देखने से उसका सही अर्थ नहीं निकलता है। क्योंकि संसार व जिन्दगी अलग है, वाक्य अलग है। ये दोनों का प्रभेद अलग है। अर्थ वाक्य से संबधित गुण है। जीवन से संबंधित नहीं है। आप रिलिजन अथवा गॉड को नहीं मानते हैं तो आप यह भी नहीं मानते हैं कि इस संसार अथवा जीवन के पीछे गॉड का उद्देश्य है। तो वहीं उसके अर्थ का सवाल भी खतम हो जाता है। परन्तु यूरोप के ज्ञान युग के सेक्यलर अथवा अथेयिस्ट चिन्तन प्रणाली में भी यह सवाल चला आया। इन चिन्तकों ने गॉड और उसके उद्देश्यवाले अंश को छोड़ दिया परन्तु अर्थ की तलाश को तलाशते हुए उसे एक सेक्युलर समस्या का रूप देकर आगे बढ़ाया। गॉड को छोड़ देने के वजह से उन्हें मनुष्य जीवन के अर्थ की तलाश की गुत्थी को सुलझाने की स्थिति हर जगह दिखने लगी। विज्ञानियों के सामने प्रकृति ही एक पहेली बनकर उसे बुझाने की परिस्थिति यूरोप मे आई। प्रकृति विज्ञान और समाज विज्ञानों में जो नये-नये आविष्कार हुए हैं वे इसी अर्थ के तलाश की देन हैं।
ऐसा कहना गलत सिद्ध नहीं होगा कि आधुनिक यूरोप के लोगों की जिन्दगी को रूपायित करने में यही अर्थ की तलाश वाले अंश का बड़ा हाथ है। उनका दृढ़ विश्वास है कि संसार और मनुष्य के जीवन के पीछे एक उद्देश्य है। मनुष्य समाज इस उद्देश्य को साकार करने का एक साधन है। इसीलिए ऐसे उद्देश्य को समझना उनके लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषय है। समझने का मतलब विवरणात्मक रीति से उसके अर्थ को सुलझाना। मनुष्य द्वारा स्थापित रिलिजन, सम्प्रदाय, कला, इतिहास (हिस्ट्री) समाज आदि इसी उद्देश्य की दृष्टि से देखने परखने के विषय बन गये। उन्हें लगा कि उसे समझे बिना उसके प्रति लगाव रखना नाजायज है। इसीलिए वे मनुष्य क्रिया का क्या उद्देश्य है? इस प्रश्न पर विचार-विमर्श करने लगे।
उदाहरण के लिए मनुकुल की सृष्टि किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुई है? इस प्रश्न के उत्तर की तलाश में हिस्ट्री विषय में संशोधन शुरु हुआ। ऐतिहासिक घटनाओं (Historical events) के पीछे उसे प्रेरित करने वाले जो नियम हैं: उन नियमों के बारे में जानकारी हासिल करके उनकी गति को पहचानने के लिए तत्वशास्त्रीय सिद्धान्त के निर्माण हुए। इतिहास का ज्ञान (Historical knowledge) मनुष्य के वर्तमान जीवन का अर्थ समझने के लिए सहायक है। उसे अपने क्रमित मार्ग के अनुभव के आधार पर यह ज्ञान प्राप्त होता है कि किस मार्ग से जाने से निर्दिष्ट मंजिल पहुँच सकते हैं, समाज को किस मार्ग से आगे बढ़ाना है, किस प्रकार की गलती का पुनरावर्तन न हो जिससे सामाजिक प्रगति कुंठित होती है आदि। इन सभी सवालों को सुलझाने के लिए हमें समाज की गति को समझना चाहिए अथवा इतिहास को यह बताने की जिम्मेदारी होती है कि हमारा समाज किन नियमों के आधार पर गतिमान है।
इससे रोचक विषय और एक है। पाश्चात्यों को संगीत, चित्रकला, काव्य आदि आस्वादन करके रसानुभूति करने का विषय नहीं हैं। अर्थ निकालने के विषय हैं। उनमें कला विमर्श (Art criticism) का बड़ा महत्व स्थान है। उनके अनुसार जीवन के अर्थ की तलाश कला है। कला का आस्वादन करने का मतलब उसमें निहित अर्थ और उद्देश्य को समझना है। इस कलाकृतियों का उद्देश्य क्या है? कलाकार के अपनी कला में निहित अर्थ को समझाना है। पाश्चात्य कला विमर्शक यह सोचते हैं कि कलास्वादन का मतलब कलाकृति का उद्देश्य और अर्थ को समझ लेना है। कलाकार ने किस विषय को समझाने के लिए कलाकृति का निर्माण किया? वह उसमें कहाँ तक यशस्वी बना, कहाँ ठोकर खाया? उसके उद्देश्य की पूर्ति और किस रीति से हो सकती थी आदि कला की आलोचना में आते हैं। पाश्चात्य कला सिद्धान्त के मूल में यही उपरोक्त अंश भरे रहते हैं। कलाकार अपनी कलाकृतियों के द्वारा समाज को कुछ समझाने का प्रयास करता है। नहीं तो वही उसकी कमी मानी जाती है। इसीलिए वहाँ कला में निहित उद्देश्य के शोध के कारण अनेक प्रकार के कला प्रकार जन्में हैं। उनके अनुसार कुछ बताने के उद्देश्य के बगैर रची हुई कला, कला ही नहीं हो सकती है। इसी को कलाकार की अभिव्यक्ति कहते हैं। परन्तु आज भी कलाकारों एवं आलोचकों में सहमति नहीं है कि किस उद्देश्य को लेकर कलाकृति की रचना हो अथवा किस अर्थ को उसमें ढूँढ़ना है? इसी कारण से वहाँ के कला के विमर्श में अनेक पंथ पाये जाते हैं। अनेक प्रकार की चर्चाएँ भी जारी हैं।
भारत जैसे देशों में पाश्चात्य उपनिवेश के साथ ही कला से सम्बन्धित ऐसे विचार आये। उससे अधिक उनके जीवन के अर्थ की तलाश के प्रकार भी आये। पाश्चात्यों के लिए ऐसे मुद्दे मायने रखते हैं। परन्तु भारतीयों को ऐसे विचार समझ में आना भी मुश्किल है। कला से सम्बन्धित चर्चाएँ तो और भी जटिल हैं। भारत में भी पाश्चात्य परम्परा के कला विमर्श चलती में हैं। परन्तु ये बताना मुश्किल है कि कला प्रकारों में पाश्चात्य लोग जिस अर्थ की तलाश करते हैं वही तलाश हमें कहाँ तक प्रस्तुत है। यहाँ और एक समस्या आती है कि ऐसे विमर्श और विमर्श के लिए भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त शब्दों के और उसमें निहित परिकल्पनाओं के अर्थ समझने में कष्ट साध्य होता है। वे पढ़ने वालों को समझ में न आये तो उन अर्थों की तलाश को रखकर कला कृतियों को समझना और भी जटिल काम है। मेरे पास उत्तर नहीं है कि भारतीय साम्प्रदायिक कला प्रकारों में अर्थ की तलाश का क्या महत्त्व है? प्रायः इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा। भारतीय कला की आलोचनाओं में रसोत्पत्ति, अथवा रसास्वादन आदि परिकलनाएँ हैं। परन्तु उसे नकारकर कलाकार को उसमें और कुछ ढूँढ़ने का उद्देश्य हो अथवा कलाकार की अभिव्यक्ति में क्या उद्देश्य निहित है, आदि कोई पूछे तो किसी को समझ में नहीं आता है कि क्या पूछ रहा है। भारतीय सन्दर्भ में ऐसा सवाल पूछनेवाला और सुननेवाला दोनों नासमझ माने जाएंगे। कहने का मतलब यह है कि हमारे कला प्रकारों में कला में निहित अर्थ की तलाश ही निरर्थक सिद्ध होती है।
इस प्रकार जीवन के अर्थ का सवाल; गॉड से अलग होकर पाश्चात्य सेक्युलर दुनिया में समझ में न आनेवाला सवाल बन गया। वही हीदनों की दुनिया में अर्थहीन सवाल बन गया। वह मनुष्य के जीवन से सम्बन्धित चिन्तनों में न बुझनेवाली पहेली बन गयी। ये समझने में ही वहाँ के चिन्तकों के बाल पक गये कि उनके चिन्तन परम्परा में जीवन का अर्थ निहित है। इस वाद का विरोध करने वाले लोग भी वहाँ मिलते हैं। निहिलिसम पंथ के चिन्तकों ने घोषणा की कि गॉड का अस्तित्व भी नहीं है और न जीवन का कोई अर्थ। असंगत वाद (एबसर्डिसम) के अनुसार जीवन में कोई खास अर्थ निहित नहीं होता है। बल्कि हम ही उसमें अर्थ का आरोप करते हैं।
जीवन का अर्थ ढूँढ़ने के इस दौर में यूरोपियन लोगों में अपनापन का अभाव, उद्विग्नता, व खिन्नता उत्पन्न हुई। यहाँ तक कि आत्महत्या के लिए एक ठोस कारण बन सका। हमारा सौभाग्य यह है कि हमारे लिए जीवन का अर्थ ढूँढ़ना एक समस्या नहीं बनी है। इस समस्या से जन्य महारोगों से हम लोग एक हद तक बच निकले हैं। क्योंकि हमारे लिए यह एक ज्वलंत समस्या नहीं है। न सुलझने वाली गुत्थी नहीं है। परन्तु यह सच है कि उपनिवेशवाद के प्रभाव से कई लोग इसी विषय को लेकर माथापच्ची तो करते रहे हैं। कहने का मतलब यह है कि थियालोजी के इस सवाल को हैजाक् (सहसा उठाकर?) करने के और सृष्टिकर्ता गॉड को ही गायब करने के अपराध के लिए पाश्चात्य चिन्तकों को सजा मिल गयी।