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हमारे अन्दर की दो दुनिया

by S. N. Balagangadhara
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शिक्षित होकर बढ़ते समय में हमारे घरेलू साम्प्रदायिक विचार एवं शिक्षा द्वारा पाये हुए विचारों के बीच संघर्ष पैदा होता है। यह संघर्ष हमारे और हमारे साम्प्रदायिक समाज के बीच एक खाईं बना देता है। इस संघर्ष के स्वरूप एवं कारण की चर्चा होगी।

भारतीय पढ़े-लिखे लोगों का व्यवहार देखा जाय तो उनमें दुविधा दिखाई देती है। ये दो दुनिया है एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत। एक हम उस वातावरण में पले बढ़े हैं जिसमें हमारे माँ-बाप, भाई-बहन, हमारे बंधुओं, बिरादरी के, अड़ोस-पड़ोस के लोग रहते हैं। ये लोग अनौपचारिक रीति से हमें सिखाते रहते हैं कि हम कैसे रहें, हमारा कैसा व्यवहार होना चाहिए, हमारे आचार-विचार, जीवन-शैली आदि को रूपायित करते हैं।

हम जब पढ़े-लिखे हो जाते हैं तब हमारे सामने दूसरी ही दुनिया का महाद्वार खुल जाता है; हमारी आधुनिक शिक्षा पद्धति उसमें हमारे परिवार, हमारी जाति, वर्ग आदि से परे एक दुनिया है। यह दुनिया हमारे पारिवारिक, साम्प्रदायिक दुनिया से बिल्कुल विपरीत है। हम मानते हैं कि यह बिल्कुल आदर्शप्राय है।

बाहर की प्रापंचिक दुनिया जो है वह साम्प्रदायिक आचरणों और धारणाओं के प्रति एक निर्दिष्ट दृष्टिकोण उत्पन्न करा देती है। इससे हममें एक दुविधापन उत्पन्न होता है। उदाहरण के लिए हम आधुनिक शिक्षा द्वारा यह सीखते चले आते हैं कि हमारा भारतीय समाज जाति पद्धति नामक अमानवीय नींव पर खड़ा हुआ है। यहाँ सदियों से नारियों तथा निम्न जाति के लोगों का शोषण होता रहा है। यहाँ के लोगों का आचरण सेहत की दृष्टि से हानिकारक अवैज्ञानिक है और इसमें आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। शिक्षितों की जो दूसरी दुनिया है, उसका अनुकरण कर हमारे रहन-सहन, सोच-विचार में परिवर्तन कर लेना प्रत्येक भारतीय का लक्ष्य होना जरूरी है। इन्हें आधुनिक शिक्षा पद्धति से सीख लेते हैं।

आश्चर्य की बात यह है कि हम कभी अपनी साम्प्रदायिक दुनिया को दोषपूर्ण व अपूर्ण नहीं समझते हैं। वहाँ भी सुख-दुःख, आशा-निराशा, क्रोध-हिंसा अतृप्ति आदि हमारे अनुभव में जरूर आये हैं। परन्तु इसका मतलब ये नहीं कि हमारे आचरण बुरे हैं; हमारे पुरखे व हमारे बंधु मूर्ख हैं; मूढ़ व अन्धविश्वासी हैं। हमारे आपसी आचरणों के प्रति हमारे मन में इस प्रकार का भाव रखकर हम नहीं जिये हैं। इन साम्प्रदायिक आचरणों को सिखानेवाले हमारे बुजुर्गों ने हमें अपने रीति से न्याय-अन्याय, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म का विवेचन भी सिखाया है। इन कल्पनाओं के बावजूद; हमारे अपने साम्प्रदायिक दुनिया में हमारे अत्यंत सुख, संभ्रम में सुन्दर पल भी निहित रहते हैं। ऐसे अनुभव कई बीते हुए भूतकाल के क्षण नहीं हैं, वे हमारे वैचारिक दुनिया के साथ अस्थित्व में रहते हैं।

यह अलग बात है कि हमारे बहुतेरे बड़े-बड़े लेखक मनीषियों ने अपने बाल्य के सुन्दर पलों का अंकन अपनी आत्मकथाओं में भी किया है। परन्तु इन पलों के अंकन होने के बाद आगे चलकर यही लेखक कहते हैं कि ‘पहले जिस वातावरण में पला-बढ़ा उसके प्रति बहुत अफसोस है। मुझे मालूम ही नहीं था कि हमारे समाज में इतने आचरण असभ्य हैं। मुझे अमुक-अमुक ग्रन्थ पढ़ने के बाद मालूम हुआ कि हमारे समाज का निज स्वरूप क्या है। (उसके अनिष्ट, मौढ्य, शोषण आदि) इन सभी आचरणों से मुक्त हुए बिना भारतीय समाज का उद्वार कदाचित नहीं होगा। इसका मतलब क्या है? यह उपरोक्त ज्ञानोदय होने से पहले ये झूठी दुनिया में जिया करते थे, क्या? जो शिक्षितों की दूसरी दुनिया (भारतीय समाज की अवहेलना करने वाली) का द्वार खुलते ही लोगों की प्रतिक्रिया विभिन्न होती है। जैसे –
1. कई लोग इस दुनिया की परवाह किये बिना; साम्प्रदायिक व व्यवहारिक दुनिया को आराम से निभाते हैं।
2. कई लोग साम्प्रदायिक दुनिया के प्रति रक्षणात्मक रुख से व्यवहार करते हैं और आधुनिक परिभाषाओं के द्वारा ही समर्थन कर बैठते हैं कि ‘हम जो आचरण कर रहे हैं वह मौढ्य नहीं है। कभी उनके आचरण को वैज्ञानिक रीति से साबित करने का बड़ा प्रयास करते हैं। कभी वे अपने आचरणों में ही थोड़ा बहुत परिवर्तन करने का प्रयास भी करते हैं।
3. कई लोग साम्प्रदायिक आचरणों का पूरा का पूरा व भागशः विरोध करते हैं। साम्प्रदायिक आचरणों को मौढ्य कहकर उसका विरोध करना व उसे रोकना अपना परम् कर्तव्य समझकर लड़ाई तक कर बैठते हैं।

कुल मिलाकर यह कहना है कि दसरी दनिया के प्रभाव के कारण पहली दनिया से मुक्ति पाने का प्रयास करते रहते हैं अथवा विविध उपायों से ‘मैं साम्प्रदायिक व्यक्ति नहीं हूँ’ कहकर दिखावा करते हैं। कई सन्दों में घर में व समाज में साम्प्रदायिक आचरण सम्पन्न होते रहते हैं; पर घरवालों की मर्जी से उनमें भाग लेते हुए भी न लेने की नौटंकी करने वाले भी पाये जाते हैं। बहुतेरे शिक्षित लोगों में यह दुविधापन आम सी बात है। परन्तु शिक्षित लोग साम्प्रदायिक आचरण में भाग ले या न लें कोई बात नहीं है। ये आचरण अपने ढंग से सम्पन्न होते रहते हैं। वे इन सभी दिखावे से भी परे हैं। पहली जो साम्प्रदायिक दुनिया है वह दूसरी दुनिया की परवाह किये बिना अपने आप चलती रहती है। इसी कारण शिक्षित लोग इसमें परिवर्तन लाने का प्रयास करने के बावजूद इन सभी प्रयासों से परे अपनी ही धुन में रहते है। ऐसा दिखता है कि समाज परिवर्तन की राह में है; परन्तु चंद दिनों में पुनः जैसा का तैसा प्रकट होकर अपने आप चलता रहता कभी संघर्ष भी होता है।

इसे परिवर्तन करने के लिए कटिबद्ध आन्दोलनकार जो रहते हैं वो विवश हो जाते हैं और वे उसके साथ समझौता कर लेते हैं व द्वन्द्व में फंस जाते हैं अथवा हैरान होकर उसी को स्वीकार कर लेते हैं। वे कहते रहते हैं कि ‘हमारा समाज सदियों से जड़ बन गया है। देखिए बुद्ध आये, कबीर आये, संत आये आखिर हुआ क्या? कोई भी इसे सुधार नहीं सकता। लोगों का इस प्रकार कहना आम बात बन गयी है। भारतीय प्रगतिशील चिन्तक हमेशा शिकायत भरी आह लेते हैं कि यह समाज कभी सुधरने वाला नहीं है।

परन्तु समाज को गौर से देखा जाय तो पता चलता है कि समाज के प्रति इन चिन्तकों की दृष्टि में ही कुछ गलतफहमी है। ये चिन्तक सामाजिकों के अनुभव को महत्त्व नहीं देते। लोगों के अनुभव को आधार बनाकर समाज के स्वरूप को समझने का प्रयास इन चिन्तकों से नहीं हो रहा है। वैचारिक दुनिया इसका निराकरण करती है। इसका परिणाम बहुत तीक्ष्ण है जिसे हमारा समाज भुगत रहा है। हमारे समाज का चित्रण जो है वह पाश्चात्य अनुभवों और प्रश्नों के धरातल पर चित्रित हुआ है; उसे हमारे बुद्धिजीवियों ने जैसा का तैसा स्वीकार किया। यहाँ के समाज का जो चित्रण हुआ है; उसमें यह मौढ्य है, यह समाज विरोधी है, आदि परिकल्पनाएँ जो हैं उसके पीछे पश्चिम का अपना निर्दिष्ट इतिहास एवं विशेष अर्थवाले शब्द निहित हैं। हमारे आधुनिक चिन्तक इनका बिना सोचे समझे मनचाहे ढंग से उपयोग करके भारतीय समाज का वर्णन अवहेलनाकारी ढंग से कर रहे हैं।

यदि किसी के द्वारा भारतीय लोगों के अनुभव के आधार पर भारतीय समाज का परामर्श करने की बात छेड़ दी जाय, तो तुरन्त उस पर लाखों रीति से तानेबाजी शुरू होती है। जैसे बहुत बड़ा पाप कार्य कर रहा है। अनैतिक काम है अथवा मूलभूतवादी कहकर प्रताड़ित करते हैं। जिसमें पाश्चात्यों की चश्में से देखकर किये हुए भारतीय समाज का चित्रण है। उसी को उपनिवेशवादी प्रज्ञा कहते हैं। जिस दृष्टिकोण से भारतीय आचरणों का अवहेलनाकारी विकृत चित्रण किया जाता है उसे हम क्यों ‘उपनिवेशवादी प्रज्ञा’ कहकर पुकारते हैं? क्योंकि वह ब्रिटिश शासन की देन है। उस उपनिवेशवादी प्रज्ञा ने हमारे अनुभवों को हम से छीन लिया है और उसके प्रति अपने अनुभव के धरातल पर न सोचने की परिस्थिति में उसने हमें धकेल दिया है।

इसका परिणाम क्या हुआ? यह हुआ कि यदि हमारे बचपन के अनुभव सच होते हुए भी; हम अपने को मजबूर कर देते हैं कि वह हमारे अज्ञान से व मौढ्य से प्रेरित चित्रण है। ऐसी स्थिति आयी कि हमें कभी भी हमारे अनुभव के आधार पर अपने समाज को देखना नहीं चाहिए। हमारी वैचारिक दनिया दबाव डालती रहती है कि हम अपने अनुभव के पीछे नहीं जायें। आधुनिक वैचारिकता को आत्मसात करना हो तो हमें अपने अनुभवों को ठुकरा देना चाहिए। उसमें अफसोस की बात क्या है? आधुनिक शिक्षा का परम उद्देश्य अज्ञान से मुक्ति पाना है। तो फिर सवाल उठेगा कि हर अनुभव सत्य है क्या? उदाहरण के लिए हमें ऐसा लगता है कि प्रतिदिन सूर्य भूमि की परिक्रमा करता है। परन्तु यह सत्य नहीं है। वास्तव में भूमि ही सूर्य की परिक्रमा करती है। यह वैज्ञानिक सत्य है। इसे हमें हमारी आधुनिक शिक्षा पद्धति ने ही सिखा दिया है। इसीलिए अनुभव अलग है, वैज्ञानिक सत्य अलग है।

परन्तु एक बात ध्यान देने योग्य है कि ऐसे वैज्ञानिक सत्य के उदाहरण द्वारा ही वैचारिक लोग अपने तर्क के अनुकूल हमारे समाज का व्याख्यान करते रहते हैं। आप ही बताइए, हमारा पोषण कर, हमें जीने की राह सिखाने वाला हमारे समाज के प्रति हम क्यों इतना कृतघ्न बनें? उसे अमानवीय क्यों कहें? हमें जीने लायक कौशल सिखाने वाले, हमें सही ढंग से सोचने का तरीका सिखाने वाले हमारे पुरखों को हम मूढ़ व मूर्ख कहें? कोई वैज्ञानिक तर्क इसका समाधान देगा? बिना किसी स्पष्टीकरण से हमारे बुजुर्ग लोग हमें और हमारे बच्चों को रहन-सहन सिखाते आये हैं। कम-से-कम पिछले सौ साल से भारतीय समाज का विवरण और उसके प्रति चिन्तन व चर्चा जो हो रही है वह इसी प्रकार की है। ऐसे सामाजिक अध्ययन से निकले तथ्य हैं। इसका परिणाम पढ़े-लिखे सोकाल्ड शिक्षित लोगों में भारत के प्रति स्थायी रूप से घृणा की नौबत आयी है।

एक समाज की समस्या का मतलब आवाम की समस्या होती है। तो सवाल उठते हैं
1. हमारे अपने लोगों की सही समस्या क्या है? क्या उसके परिहार का प्रयास हो रहा है क्या?
2. हमारे अपने लोगों की समस्या कहकर, जनता से ताल्लुक ही न रखने वाली चर्चा द्वारा हमारे बुद्धिजीवी वर्ग; लोगों को भटकाता रहा है। इसमें कितनी समस्याएँ बुद्धिजीवियों से उत्पन्न स्वयंकृत समस्याएँ हैं और कितनी निज समस्याएँ हैं? इस उपनिवेशवादी प्रज्ञा के कारण न जाने कितने दुष्परिणाम हुए होंगे। भारतीय शिक्षित वर्ग में प्रचलित चर्चाओं से ही हम इन सवालों का उत्तर पा सकते हैं। उपनिवेशजन्य प्रज्ञा के कारण हम ऐसी समस्याओं की चर्चा कर रहे हैं जो हमारी अपनी समस्या ही नहीं है। किसी दूसरों की समस्या को हमारी समस्या बनाकर बडी बहस करते रहते हैं। तो हमें इन बेकार की बहस से मक्ति पाने के लिए और उपनिवेशवादी प्रज्ञा से उत्पन्न सामाजिक उलट-फेर को सही ढंग से पहचानने के लिए उपनिवेशवादी प्रज्ञा का परामर्श करने की आवश्यकता है। ऐसा किया जाय तो हमारी सामाजिक समस्याओं का सही चित्रण मिलेगा। इसी कारण से प्रस्तुत लेखन माला का नामकरण ‘उपनिवेशवादी प्रज्ञा का विश्व रूप रखा गया है।

Authors

  • S. N. Balagangadhara

    S. N. Balagangadhara is a professor emeritus of the Ghent University in Belgium, and was director of the India Platform and the Research Centre Vergelijkende Cutuurwetenschap (Comparative Science of Cultures). His first monograph was The Heathen in his Blindness... His second major work, Reconceptualizing India Studies, appeared in 2012.

  • Dr Uma Hegde

    (Translator) अध्यक्षा स्नातकोत्तर हिन्दी अध्ययन एवं संशोधूना विभाग, कुवेंपु विश्वविद्यालय, ज्ञान सहयाद्रि शंकरघट्टा, कर्नाटक

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